इतिहासलेख

महान क्षत्रिय तपस्वी वीर दुर्गादास राठौड़

             स्वामिभक्त वीर दुर्गादास राठौड़

 

 


महापुरुषों की पूजा उनके नाम,कुल,जाति या किसी धर्म से नहीं होती बल्कि उनकी पूजा सिद्धांत तत्वों की होती हैं, जिन्होंने पूरा जीवन उस तत्व के लिए खपा दिया।श्री राम मर्यादा से जाने गये तो श्री कृष्ण कर्मयोगी से।उन्हीं महापुरुषों में वीर दुर्गादास राठौड़ भी थे,जिन्होंने स्वामिभक्ति क्षेत्र मे अपना नाम अमर किया।वीर दुर्गादास जी साधारण राजपूत परिवार में जन्में थे, न तो उनके पास कोई बड़ा राज्य था और न ही कोई धनकोश,बस उनके पास थी अपने भुजदण्डों का पुरुषार्थ।अपनी वीरता,दिलेरी और पराक्रम से वे मारवाड़ के इतिहास के महानतम विभूति बन गये ।उनका 30 वर्ष का संघर्ष जीवन घोड़े की पीठ पर बिता और रोटी भी वे घोड़े की पीठ पर बैठकर सेंकते थे।इसके लिए दोहा प्रसिद्ध हैं –

आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले उपर वास।
सैल अणि सूं सैकतो बाटी दुर्गादास।।

वे एक तपस्वी की भाँति अंतिम समय में अपने स्वामी से प्रदत्त कार्य को पूर्ण कर उज्जैन चले गये, जहाँ क्षिप्रा नदी की तट पर उन्होंने अंतिम सांस ली।

प्रारंभिक जीवन

वीरवर दुर्गादास राठौड़ का जन्म श्रावण सुदी चतुर्दशी विक्रम संवत 1695 (13 अगस्त 1638 ईस्वी) में सालवा गाँव मे हुआ।उनके पिता कानाणा और सालावास के ठाकुर  आसकरण करणोत थे,जो जोधपुर के शासक महाराजा जसवंत सिंह के दरबारी मंत्री थे।उनकी माता का नाम नेतकँवर भटियाणी था,जिनके संस्कारों से दुर्गादास जी इतिहास पुरुष बने।आसकरण जी अपनी पत्नी नेतकँवर से अप्रसन्न रहते थे,इसलिए उन्होंने अपनी रानी को दुर्गादास जी के साथ लूणवा गाँव में भेज दिया।यहीँ दुर्गादास जी का बाल्यकाल बिता था।1655 ईस्वी के लगभग दुर्गादास जी का साधारण जीवन असाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित हो गया,उन्होंने अवैध रूप से खेतों में चरा रहे ऊँटों को बाहर निकालकर राइकाओं का विरोध किया।आक्रोश में आकर दुर्गादास जी ने उद्दंड एक राइका को तत्काल मार गिराया।जब यह घटना महाराजा जसवंत सिंह को पता चली तो,उन्होंने दुर्गादास जी को दरबार मे बुलाया तथा राजकीय चरवाहे को मारने का कारण पूछा।तब दुर्गादास जी ने निर्भय उत्तर दिया कि वे राइका उद्दंडता से आपका नाम लेकर खेतों को बर्बाद कर रहे थे,इसलिए मैंने राज्य गरिमा एवं खेतों की सुरक्षा के लिए उस चरवाहे को मार गिराया।इस निर्भीक उत्तर से महाराजा जसवंत सिंह अत्यंत प्रभावित हुए तथा युवा दुर्गादास को अपने दरबार मे रख लिया।

संघर्षकाल – दुर्गादास जी अपने स्वामी राजा जसवंत सिंह के रक्षार्थ सदैव तत्पर रहते थे।धर्मत के उत्तराधिकारी युद्ध मे महाराजा जसवंत सिंह के अत्यंत घायल होने पर दुर्गादास जी ने उनकी प्राणरक्षा की।28 नवम्बर 1678 को जमरूद मुग़ल थाने में जब महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु निःसंतान हो गयी तब औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर दिया।महाराजा की मृत्यु के पश्चात उनके दो पुत्र हुए।एक का नाम अजित सिंह रखा गया और दूसरे का दलथम्भन।दलथम्बन की मृत्यु मध्य मार्ग में ही हो गयी।दुर्गादास जी बालक अजित सिंह को दिल्ली आकर औरंगजेब के समक्ष लाकर जोधपुर पुनः देने का आग्रह किया, किन्तु औरंगजेब ने राठोड़ो का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।धर्मांध औरंगजेब शिशु अजित सिंह का धर्म परिवर्तन करना चाहता था।भावी खतरों को देख राठौड़ सरदारों ने शिशु अजित सिंह को दिल्ली से बाहर निकालने की योजना बनाई।मुकुन्ददास खींची सपेरे का वेश धारण कर अजित सिंह को दिल्ली से सुरक्षित निकालकर सिरोही के कालिंदी गांव में ले आए, जहां उनका लालन पोषण हुआ।दिल्ली में राठोड़ो के विद्रोह से कोतवाल फौलाद खां पांच हजार घुड़सवारों के साथ युद्ध के लिए निकला। 700 राजपूतों ने मुग़ल सेना से युद्ध किया तथा रणछोड़दास गोयंददासोत जोधा वीरगति को प्राप्त हुए।दुर्गादास जी शेष 50 सैनिकों के साथ दिल्ली से सुरक्षित निकलने में सफल हुए।औरंगजेब की हड़प और धर्म कट्टरता की नीति से मारवाड़ में विद्रोह हो गया तथा मेड़ता,डीडवाना, जैतारण,सोजत आदि मुग़ल छावनियाँ राजपूतों के द्वारा ध्वस्त कर दी गयी।राजपूताने में हुई अशांति से औरंगजेब स्वयं अजमेर आया तथा अपने पुत्र अकबर ऒर मुअज्जम को विद्रोह शांत करने के लिए भेजा।इससे दुर्गादास जी अजित सिंह को लेकर महाराणा राज सिंह के पास आ गए तथा मुग़लों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए मारवाड़-मेवाड़ संबध को मजबूत किया।मुग़लों के सैन्य शक्ति के कारण दुर्गादास जी ने कूटनीति का सहारा लिया तथा वे शहजादे अकबर से देसूरी के समीप खोड़ गांव में मिले।दुर्गादास जी ने अकबर को लोभ दिया कि मुग़ल बादशाह अकबर राजपूतों का सम्मान करते थे,किन्तु आपके पिता आलमगीर राजपूतों का दमन कर सहयोग नीति को नष्ट कर रहे हैं, अतः आप मेवाड़ और मारवाड़ के राजपूतों के सहयोग से बादशाह बनकर अपने पूर्वज बादशाह अकबर के सपनों को पूरा करें।इस प्रकार शहजादे अकबर ने अपने पिता के ही विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यह वीर दुर्गादास की महानतम कूटनीतिक विजय थी।वे अकबर को दक्षिण में छत्रपति शंभाजी महाराज के यहां ले गये।अकबर अपने पुत्र बुलन्द बख्तर और पुत्री सेफतुनियसा को राठोड़ों के संरक्षण में छोड़ गया।उन्हें सिवाना में सुरक्षित रखा गया और दुर्गादास जी ने उन्हें धर्म की शिक्षा के लिए काजी भी नियुक्त किया।यह दुर्गादास राठौड़ के धर्म सद्भाव के गुण को दर्शाता हैं।जब यह घटना औरंगजेब को विदित हुई तो वे दुर्गादास जी के व्यक्तित्व के कायल हो गये।

अंतिम समय – 1707 ईस्वी में औरंगजेब की मृत्यु होने मुग़ल साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया। राठौड़ों ने इस अवसर का लाभ उठाकर जोधपुर किले पर अधिकार कर लिया तथा अजित सिंह जी को जोधपुर का राजा बना दिया।दुर्गादास जी राठौड़ की लोकप्रियता से चिढ़कर कई सरदारों ने राजकुमार अजित सिंह के कान भरने शुरू कर दिये।दुर्गादास राठौड़ की ढ़लती उम्र और राठौड़ी राजा व सिरदारों की उदासीनता के चलते उन्होंने मेवाड़ में शरण ली।उन्हें रामपुरा का हाकिम नियुक्त किया।दुर्गादास जी अंतिम समय उज्जैन में व्यतीत हुआ तथा उनका स्वर्गलोक 22 नवम्बर 1718 को हो गया।उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर बनी उनकी समाधि उनकी स्वामिभक्ति की गाथा गौरव से सुनाती हैं।दुर्गादास जी का सम्पूर्ण जीवन अभावों में गुजरा और उनके अंतिम समय में भी अपकारी समाज ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था।किंतु जो दुर्गादास जी ने इतिहास में अमिट पहचान बनाई एवं राजस्थान के गौरव व्यक्ति बनें, उनके आदर्शों को आज ग्रहण करने की आवश्यकता है।

मनु प्रताप सिंह चींचडौली,खेतड़ी

मनु प्रताप सिंह चींचडौली

निवास-जयपुर,राजस्थान पिन कोड 302034 शिक्षा-बीएससी नर्सिंग तृतीय वर्ष