आ गए फिर से लुटेरे
वोट का धन लूटने को,
आ गए फिर से लुटेरे।।
मंडियाँ सजने लगी हैं,
भीड़ है व्यापारियों की।
वायदों की पोटली में,
गंध है मक्कारियों की।
एक सी खिचड़ी पकाते,
भाई मौसेरे-फुफेरे।।
आसमाँ को आप अपने,
पाँव के नीचे समझिए।
कौन, क्या, कैसे करेगा,
इस बहस में मत उलझिए।
मछलियों को फाँसने में,
हैं बहुत माहिर मछेरे।
मुफ़्तखोरी की नशीली,
गोलियाँ मिलने लगी हैं।
मूढ़ जनता के दिलों में,
कोंपलें खिलने लगी हैं।
वे खड़े हैं चींटियों की
राह में शक्कर बिखेरे।
दल बदलने के बहुत से,
कारणों की बात होगी।
रात में सूरज उगेगा,
दोपहर में रात होगी।
एक दल में शाम है तो,
दूसरे दल में सवेरे।।
रैलियों पर रैलियाँ कर,
भीड़ लाई जा रही है।
और पीछे संक्रमण की,
धुन बजाई जा रही है।
हैं नज़रअन्दाज़ इस पल,
वायरस के भी बसेरे।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’
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