लघुकथा भूख
दरवाजे पर दस्तक हुई। वह नींद में था। दस्तक फिर हुई। वह उठा और दरवाजा खोला। भूख खड़ी थी। वह भौंचक्का क्षणभर उसे देखता रहा।
” अंदर आने को नहीं कहोगे?”
” नहीं।”
” क्यों?”
” मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं है।”
” अरे! तुम इस युग के आदमी नहीं हो क्या?”
” हुँ, उससे क्या?”
” सभी को मेरी जरूरत होती है!”
” मुझे नहीं। चली जाओ।”
उसने द्वार बंद करना चाहा, पर भूख ने अपना पैर अड़ा दिया। उसने धक्का देकर उसे बाहर कर दिया। और दरवाज़ा बंद कर लिया । वह चादर तानकर अभी लेटा ही था कि पड़ोस के घर से जोर से रुदन सुनाई दिया:
” माँ, भूख लगी है रोटी दे।”
उसने अपने कान बंद कर लिए।□
— अशोक जैन