सामाजिक

मुसीबतों का मारा मिडल क्लास

शानों शौकत वाली मिल जाए उसे ज़िंदगी कहते है,
दौड़धूप की मारी उम्र कटे उसे नासाज़गी कहते है
पर हर परिस्थिति का सामना करते जो ज़िंदादिली से जिए उसे मिडल क्लास परिवार कहते है। मिडल क्लास यानी मध्यम वर्गीय परिवार जो ताउम्र मुसीबतों का मारा ही रहता है, ज़िंदगी जिसे छोड़ देती है दो पाटन के बीच पिसने के लिए। न वो अमीर की श्रेणी में आता है न गरीब कहलाता है, न वो आरक्षण का हकदार होता है न बड़ी लाॅन लेने की हैसियत रखता है।
लोगों को आरक्षण नहीं मिलता तो वो पटरियां उखाड़ देते है, किसानों की मांगें  पूरी नहीं होती तो धरने पर बैठ जाते है, लेकिन मिडिल क्लास आदमी को अपनी शादी पे छुट्टी भी मांगनी हो तो ऐसे डर-डर के मांगता है जैसे छुट्टी नहीं, बॉस से उसकी संपत्ति का आधा हिस्सा मांग लिया हो। हर उम्मीद को टूटते हुए देखना और दो सिरे को जोड़ने की जद्दोजहद में माहिर होते उम्र काट देना ये परिभाषा है मिडल क्लास आदमी की।
हाँ पर एक बात है मिडल क्लास आदमी को कभी डिप्रेशन नहीं आता। अमा यार समाज में टिके रहने की दौड़ से कुछ ओर सोचने का वक्त मिले तो डिप्रेशन अपनी जगह बना पाए ना। न इनको शानदार बचपन हासिल होता है, न झूमती जवानी, न ऐशो आराम वाला बुढ़ापा। एक मुसीबत को तुरपाई लगाता है तो इतने में दूसरी फ़टेहाल मिलती है। एक घरेड़ में रेंगते हुए आयु काटनी है। पर एक सुकून है बेचारों के पास, चाहे स्मार्ट टीवी के भाव बढ़े या एपल मोबाइल का न्यू माड़ेल लौंच हो इनको फ़र्क नहीं पड़ता, ये तो बस पेट्रोल, डिज़ल या सब्ज़ी में एक रुपया भी घट जाए तो खुश हो लेते है। पहली तारीख के इंतज़ार में पच्चीस तारीख से बैठे होते है।
कहाँ जाते वो लारी-ठेले वाले अगर मिड़ल क्लास वाले न होते। ब्रांडेड के बाज़ारों से न इनको मोहब्बत है, न बड़ा बड़े मोल की रानाइयां आकर्षित करती है। हाँ गर्मी जब 40 डिग पार होते सीमा उलाँघती है तब AC मोल में दो चार चक्कर लगा लेते है। बाकी तो फूटपाथ से खरीदे गोगल में भी हीरो लगते है। कितने फ़्लेक्सिबल इनके बच्चें होते है, जन्म दिन भी अगर 28 को होता है तो तीन दिन बाद पहली तारीख को मनाने के लिए राज़ी हो जाते है। फ़ाइव स्टार की रंगत तो पता ही नहीं इनको, पाँवभाजी के संग घर के ही बनें गुलाब जामुन मिल जाए तो हर फंक्शन पर चार चाँद लगा लेते है।
शादियां निपटा कर आर्य समाज विधि से खंडाला तक हनीमून में जाने का जुगाड़ कर लेते है। मन भी होता है पालक पनीर खाने का पर भाव देख पनीर के आलू को तल कर पनीर में ड़ालकर काम चला लेते है। ड्रायफ़्रूट चिवडा नहीं बनता यहाँ, सेव कुरमुरे में सिंग चने ड़ाल कर जश्न मन जाता है। फ़िल्म देखने थिएटर तक नहीं जाते 6 महीने बाद वही फिल्म जब टीवी पर आती है तब देखकर बाजुवाली उड़ीपी होटेल में मेंदुवड़ा, इडली या डोसे खाकर विक एंड मना लेते है।
टूथपेस्ट को निचोड़ाना कोई इनसे सीखें भैया, सच में दो दिन का जुगाड़ कर लेते है। हैंड वाॅश में पैसे बर्बाद नहीं करते नहाकर बचे पतले साबुन को हाथों पर मल लेते है। नहीं देता वो बंदा चंदे के नाम पर पाँच पच्चीस रुपये, सोचता है भगवान जैसा कुछ नहीं होता पर भंडारे का भोग बड़े चाव से प्रसाद समझते गटक जाता है। मजबूर इंसान है समझो यार उस पाँच पच्चीस रुपये में एक दिन की सब्ज़ी ले लेता है। घर के बच्चें भी भगवान का रुप होते है।
इनके सपने में संगमरमर का ताजमहल या दुबई का बुर्जख़लिफ़ा नहीं आता पास वाले बनिये की दुकान में पड़ी उधारी की खातावही दिखती है, अगले महीने बनिये को 2000 ज़्यादा जो चुकाना है, अरे भै मुन्ने की फ़ीस जो भर दी है इस महीने। या तो कुछ यार दोस्त मिलकर सब हर महीने हज़ार दो हजार निकाल कर जमा करते है और जिसको जरूरत हो वो रख लेते है, दूसरे महीने कोई दूसरा रखता है बस ऐसे सबके व्यवहार चल जाते है। क्या किसी सरकार के पास मध्यम वर्ग की मुसिबतें दूर करने का जादूई चिराग होगा? नहीं… सरकार कोई भी आए, मध्यम वर्ग का ये मसला राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से भी ज़्यादा पैचिदा है, हर साल बजट में मध्यम वर्ग को बाबाजी का ठूल्लू ही मिलना है।
पिछले कई साल से मध्यम वर्ग के हाथ लगातार खाली है, तभी तो सामान्य बाजार में रौनकें गायब है। औद्योगिक क्षेत्र में कोरोना काल में हुई बड़े पैमाने पर छंटनी, नए रोजगार के अवसरों में कमी एवं केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भर्ती प्रक्रिया में शिथिलता सामान्य इंसान जाए तो कहाँ जाए।
पर एक बात तो है ये मध्यम वर्गीय लोग बड़े ज़िंदादिल होते है, ज़िंदगी के हर पल को जी भरकर जीते है। हर छोटी बड़ी चीज़ों में से खुशियाँ तलाशना कोई इनसे सीखें। हर त्योहार हर प्रसंग को अपनी हैसियत के मुताबिक धूमधाम से मनाते ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाते जीते है।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर