कविता

खामोश नजरें

तेरी खामोश नजरों को
कैसे मैं समझाऊँ प्रिये
मैं बेबस लाचार यहॉ हूँ
कैसे मिलन को आऊँ प्रिये
जब तक शून्य में
देख रही होती हो तुम
मैं होशों हवास खो देता हूँ
मन की पंक्षी उड़ना चाहे
पंख घायल हो जाता है
तेरी आँचल की छाया पाने को
दिल पागल हो जाता है
भूख भी अजीब दुश्मन है
परदेश पहुँचा ही देता है
बाल गोपाल छोड़कर जानम
कलकत्ता में हूँ वास किया
बच्चे की हँसी खुशी पर
परदेश में निवास किया
ठंडी रात की सूनी गलियाँ
अब डरावना सा लगता है
मन बेबस मजबूर होता है
जब परदेश को जाता है
कैसे जाऊँ छोड़कर जानम
पापी पेट दुश्मन खड़ा है
घर में भी बेकार पड़ा था
दो पैसे की आस खड़ा है
होली में आऊँगा इस वर्ष
तुम र्निंश्चत हो रहना गाँव में
मुन्नी चुन्नी को होली का
आर्शिवचन क्हना घर में

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088