व्यंग्य कविता
माना तेरी नज़र में…. की तर्ज पर
माना ऐ कुर्सी तेरा
हम प्यार नहीं हैं,
कैसे हम यह कह दें…
तेरे तलबगार नहीं हैं।
तुझको पाने की खातिर,
हज़ारों जुर्म हैं किए।
तुझसे बिछोह न हो,
खींचातानी पर अड़े।
तूं जान से है प्यारी
जाना तूं दूर नहीं।।
माना….
दल बदलू बन कर हमने,
तिड़कम भी है लगाए।
दोस्त और दुश्मन बन कर,
आपस में हैं टकराए।
अधिकार है तुझ पर मेरा
बैठूंगा तुझ पर मैं ही।
माना….
तू ताज सी सुंदर लागे
सब पीछे तेरे भागें
तुझे देखते ही सबके
सोए सपने हैं जागे।
पा कर तुझको रंक भी
बन जाएं करोड़पति।।
माना….
— अंजु गुप्ता