लो बसंत आ गया
लो बसंत आ गया,,,
डालियां महक रही,
कोयलें कुहुक रही,
झूम-झूम गीत गा,
नवयोवना चहक रही,
खुशियों का मेघ ये,
दिग्दिगन्त छा गया,,,
लो बसंत आ गया,,,
भंवरे भी झूम रहे,
कलियों को चूम रहे,
आज सारे देवता भी,
उपवन में घूम रहे,
नीरस, नीरवता का
आज अंत आ गया,,,
लो बसंत आ गया,,,
सरसों है पीली सी,
बालियां चमकीली सी,
ओंस की इन बूंदो से,
कोपलें हैं गीली सी,
जैसे पीत वस्त्र पहन,
कोई संत आ गया,,,
लो बसंत आ गया,,,
चलती समीर मंद सी,
ज्यों कवि के छंद सी,
सरिता की धारा दिखी,
तोडती तटबंध सी,
पृकति का गीत कोई,
निराला, पंत गा गया,,,
लो बसंत आ गया,,,
कोमल सी भावना हो,
निस्वार्थ कामना हो,
उन्नति की राह चलें,
सफल हर संभावना हो,
आज ‘जय’ ने जो भी चाहा,
वो तुरंत पा गया,,,
लो बसंत आ गया,,,
— जयकृष्ण चांडक “जय”