अनुभूति
वह तख्त अभी भी
पड़ा है उसी कमरे में
जिस पर कभी
लेटती थीं अम्मा हमेशा,
बांचती थीं सुख सागर
गीता और मानस के पृष्ठ
जपती थीं सुबह-शाम
तुलसी की माला।
अब मैं जब कभी
बहुत थक जाता हूं
जीवन के द्वंद्व और झंझावातों से
जूझते-लड़ते हुए
या कभी होता हूं निराश-निस्तेज
उद्विग्न, उदास, उत्साहरहित
तब सीधा आकर लेट जाता हूं
उसी तख्त पर
मां की गोद की तरह।
तब महसूसता हूं चेहरे पर
मां का आंचल
पसीने की बूंदें पोंछता हुआ
और सिर पर वही आशीषते
कोमल खुरदुरे हाथ की छुअन
जैसे बचपन में स्कूल से लौटने पर
या रात को बुरा सपना देखने पर
अम्मा छिपा लेती थीं
अपने आंचल में।
तब भर जाता हूं अंदर तक
एक असीम ऊर्जा-उत्साह से
धैर्य, आशा-विश्वास, मधुरता
अभय, आनंद और शांति से,
और तब हो जाता हूं
बिल्कुल तरोताजा, खिला-खिला
उगते नवल सूरज की तरह।
— प्रमोद दीक्षित मलय