गीत
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।
जिनसे प्रविष्ट हो प्रेम – भाव,
अंतर में गहन समाने के।।
कपि – शावक नहीं छोड़ता है,
पल भर को माँ के आँचल को
मानव के नयनों में घुस कर,
वह भी पढ़ता सनेह छल को।
मानवी – प्रेम के वशीभूत,
आते ढँग उसे रिझाने को।
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।।
नारी माँ के कर दूध पिए,
बोतल में जब वह डाल रही।
हठ कर के पीने लगा वहीं,
सुंदर गिलास से धार बही।।
आँचल में शावक छिपा लिया
आचरण नेह सिखलाने के।
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।।
रति हास्य शोक या भय वत्सल,
उर में दस भाव सदा रहते।
उत्साह क्रोध विस्मय विराग,
नित भाव जुगुप्सा के बहते।।
सुत,शिष्य नेह वाचक वत्सल,
पशु, खग को प्यार जताने के।
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।।
वानर क्या सिंह, सर्प कोई,
घातक से घातक जीव सभी।
आँखों से नेह झाँक लेते,
भय देख न आते पास कभी।
उर का हर भाव गूढ़तम है,
ये बोल बताते गाने के।
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।।
आओ बाँटें हम प्रेम सदा,
ठगने का भाव न आ पाए।
क्यों मनुज देह धर मानव की,
अपने गौरव पर इतराए !!
शुभता ही ‘शुभम’ बाँट जग को,
कर काज न दृग झुक पाने के।
वातायन उर के दृग दोनों,
भावों के आने – जाने के।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’