दादाजी
ये बूढ़ा नहीं है
ये बैठा है पिछले 9 दशक से
एक वक्त था यह काम करता था
अपनी जवानी की घोषणा सरेआम करता था
इसने देखी है आजादी
इसने कमाया है पसीने को
ये रहा है खेत
आता था पसीना खुद को भी
और बैलों को भी
ये चेहरा खुश हो जाता
लहराती फसलों को देख कर
सुबह में ,शाम में ,दोपहर में
इसने देखा है तपता जेठ का महिना
इसीलिए है इसका आज तक चौड़ा सीना
6 फुट की काया ,अब थोड़ी सी झुक गई है
सांसों की गहमागहमी थोड़ी सी रूक गई है
अब इसको सहारा लेना पड़ता है
लेकिन सबसे बड़ा सहारा है
विश्वास का सहारा,जीवन है
कदम बढ़ा रहा जिंदगी का
इनके चेहरे को देख कर मैं
कह सकता हूं कि मैंने जिंदगी जीती देखी है
परिस्थितियों मजबूरियों की घूट बना कर पीती देखी है
यह मेहनत की मूर्ति मेरे दादाजी की है