पता है
पता है क्या सील रही हूँ?
अपनी मजबुरियों को
बार-बार टूटकर बिखर जाती हैं
बिखरों को उठाने मैं भी बिखर न जाँऊ
इसलिए सील रही हूँ
उदासी नहीं है चेहरे पर
वक्त के तुफां ने मेरा चेहरा सजाया है
सरकंडो से बने झोपड़े में
कभी नहीं मेरा मन घबराया है
देख !!!
मेरी मेहनत का रूप
वो सूरज भी शरमाया है
परिवार को अपने
पसीने से सींचती हूँ
गाड़ी जिंदगी की
मैं!!!
अकेले ही खिंचती हूँ
जब तक है लहू नसों में
ये हाथ नहीं फैलेगा
मजबूरी से मजबूत बनी हूँ
देखूँ
ये वक्त कब तक
मुझसे खेलेगा ?