पहाड़ सी जिंदगी
जिंदगी पहाड़ सी लग रही
गरीबी के रोशनदान से
कोशिश की उठने की बहुत
कदम ठहर गये बेजान से
जरूरतों को पुरा करते करते
वक्त जाया हो रहा है
मेरा लेखक कागज़ उठाये
कहीं कोने में रो रहा है
कब पार जाऊँगा इस बियाबान से
जिंदगी पहाड़ सी लग रही
गरीबी के रोशनदान से
सूरज पहुँचता नहीं सुबह
की जद्दोजहद जारी हो जाती है
आस के कोटरों में ये आँखें
ना दिन में ना रात में सो पाती हैं
बहुत गिले शिकवे हैं मेरे भगवान से
जिंदगी पहाड़ सी लग रही
गरीबी के रोशनदान से
भ्रम में जी रहा है मुट्ठी भर मानव
जो ऊँच नीच की खाई में रहता है
बड़े-बड़े मकानों में छोटा पड़ गया है
एक फुटपाथ को मुस्कुराते सहता है
लोगों को सुनता रहता है बड़े ध्यान से
जिंदगी पहाड़ सी लग रही
गरीबी के रोशनदान से
दरारें आ गई हैं उस आधार में
जो मैंने बड़ी मेहनत से बनाया था
अकेला ही जाना पड़ा था सिकंदर को
उस के पास भी न अपना साया था
झाँक कर देखा है अपने गिरेबान से
जिंदगी पहाड़ सी लग रही
गरीबी के रोशनदान से
कोशिश की उठने की बहुत
कदम ठहर गये बेजान से
परवीन माटी