कविता

फ्रायड और मैं

नींद में करवटें बदली खूब
स्वप्न में उत्तेजना ये कैसी…!
चित्र-विचित्र, अजीब उलझन
रोम-रोम में अजीब अकड़न।

अकस्मात! एक बेतरतीब सूरत
मौन! देखता मुझे घूरकर वो
कर रहा विश्लेषण मन का
हँसता रहा मूँछों में मंद-मंद।

कौन! मौन! कौन! मौन! कौन!
हँसकर बोला ‘ज्ञानीचोर’
चौंक गया मैं,डर गया मैं बिलकुल
मुझे कौन जानने वाले तुम आज!

मैं फ्रायड हूँ! तेरी अन्तश्चेतना हूँ।
नमस्ते महोदय! देखा नहीं साक्षात्
पढ़ा आपका सिद्धांत आधा-पूरा…
रह गया शेष द्वंद्व और लिबिडो…!

फ्रायड साहब! एक दुविधा है प्रश्न भी!
‘स्त्री को देखती हैं स्त्री
पुरूष भी देखता स्त्री को
नहीं देखता पुरूष को पुरूष! क्यों!’
क्या यहीं फ्रायडवाद का मुख्य लक्षण!

— ज्ञानी चोर

ज्ञानीचोर

शोधार्थी व कवि साहित्यकार मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान मो.9001321438 ईमेल- [email protected]