गीतिका
मानव – उर को प्यार चाहिए।
हरा – भरा संसार चाहिए।।
स्वर के बिना नहीं है वाणी,
व्यंजन को स्वर -हार चाहिए।
भले न दिखते चर्म – चक्षु से,
सम्बन्धों को तार चाहिए।
बातों से यदि बात न बनती,
अरिदल को असिधार चाहिए।
नाच उठेगी सरसों पीली,
वासंती उपहार चाहिए।
होली नहीं रंग से होती,
रंग – रँगीली नार चाहिए।
गल्प अकेले कब होती है,
समभावी दो – चार चाहिए।
चाहें यदि सम्मान जगत में,
प्रेम भरा व्यवहार चाहिए।
भावों का जब सागर उमड़े ,
सजल ‘शुभम’ उर-द्वार चाहिए।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’