माँ ही क्यों लिखूं?
एक बड़ा सवाल
मैं माँ ही क्यों लिखूं?
क्या सिर्फ इसलिए
कि उसने मुझे अपने गर्भ में प्रश्रय दिया,
रक्त मज्जा से मुझे आकार दिया,
दिन रात मेरा बोझ नौ माह तक ढोया
या फिर इसलिए कि
मुझे जन्म देने के लिए
खुद को दाँव पर लगा दिया।
या फिर अपना दूध पिलाया,
खुद गीले में सोई, मुझे सूखे में सुलाया,
हर पल मेरे लिए सचेत रही
या फिर इसलिए कि मेरी खातिर
अपने सारे दुःख दर्द भूली रही,
अपनी ख्वाहिशें होम करती रही।
पाल पोस्टर बड़ा किया।
या फिर इसलिए कि माँ है हमारी
जो मेरे हंँसनें पर हँसती रही
मेरे रोने पर रोती रही,
मेरी छोटी सी खुशी के लिए
अपनी बड़ी से बड़ी खुशी भी
पीछे ढकेलती रही
अपना सब कुछ भूल गई।
या फिर इसलिए कि मैं उसका अंश नहीं
उसका ही निर्माण हूँ,
वो पहाड़ ,मैं उसका रजकण हूँ।
या फिर इसलिए कि
मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है,
बेटी/बेटा हूँ तो मेरा भी कुछ फ़र्ज़ बनता है,
माँ है वो हमारी तो
उसका भी कुछ हक बनता है।
या फिर इसलिए कि सृष्टिकर्ता के रुप में
उसने सृष्टि के नियम को चलायमान रखा है,
मेरे रुप में सृष्टि चक्र का सूत्र
मुझे पकड़ा रखा है।
या फिर इसलिए कि वो माँ है
माँ के सिवा कुछ नहीं है
माँ की जगह कोई ले नहीं सकता
राजा हो या रंक,अमीर हो या गरीब
माँ के गर्भ में गुजारे नौ माह
कोई वापस जो नहीं कर सकता,
फिर भला माँ का कर्ज कैसे उतर सकता।
फिर इस बहस का मतलब क्या है
कि मैं माँ ही क्यों लिखूं।
तब लगता है मैं कुछ लिखूं या न लिखूं
पर लिखना ही है तो
सबसे पहले माँ ही लिखूँ,
अपने शब्द माँ को ही अर्पित करुँ।