कविता

सपनों की नींद

नींद भी कितनी अजीब है
बहुत भरमाती है,
आजकल तो मेरी नींद
बड़े गुल खिलाती है,
नींद नींद भी चैन से लेने नहीं देती।
इधर मैं नींद के आगोश में जाता हूं
उधर सपने मुझे गुदगुदाते हैं
बहुत भरमाते हैं,
चुनाव लड़ने को उकसाते हैं,
इतना तक ही होता तो और बात थी,
भारी बहुमत से विजयी भी बनाते हैं
यहां तक भी चलो ठीक है मान भी लूँ
मुझे मंत्री नहीं सीधे मुख्यमंत्री बनाते हैं।
मैं शपथ ले रहा हूँ,
मुख्यमंत्री बनकर बड़ा ऐंठ रहा हूँ।
टूटी चौकी पर लेटा लग्जरी बिस्तर का
अहसास कर रहा हूँ,
पुरानी मोटर साइकिल भी नसीब में नहीं
उड़न खटोले की सैर कर रहा हूं।
तभी मोबाइल पर काल आ गई
मेरी नींद खुल गई,
मैं सोचने लगा मैं तो चौकी पर सोया था
जमीन पर कैसे आ गया।
तभी नजर पत्नी पर पड़ी,
झगड़ ही तो पड़ी
मुख्यमंत्री जी सपने से बाहर निकलो,
चुनाव लड़ने और कुर्सी के चक्कर में न पड़ो,
ये सब सपने में ही अच्छे लगते हैं,
धरातल पर ही रहो तो अच्छा है,
चौकी के बजाय जमीन पर ही सोया करो
तो सबसे अच्छा है।
वरना किसी दिन हाथ पैर टूट जायेंगे
मुख्यमंत्री बनने के सपने चूर हो जायेंगे
सपने के चक्कर में
तुम्हारे इलाज के खर्च बढ़ जायेंगे
ये सब हमारे बजट झेल नहीं पायेंगे।
मैंने अपना सिर पीट लिया,
आज से चौकी के बजाय जमीन पर ही
नींद लेने का निर्णय कर लिया।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921