ग़ज़ल
बारहा देती रही हमको दुहाई महफ़िल
तू नहीं था तो मुझे रास न आई महफ़िल
रोशनी हुस्न सुख़न कुछ नहीं भाया दिल को
सिर्फ़, यादों के चरागों से सजाई महफ़िल
था यकीं ख़ुद पे, भरोसा था हुनर पे अपने
चाह शोहरत की थी जो खींच के लाई महफ़िल
तज़किरा होता रहा “वक़्त गुजारें कैसे”
रात जब बीत गई होश में आई महफ़िल
रौनकें उसके लिए जिसने ख़ुशी हो पाई
डूब कर कर्ब में किसने भला पाई महफ़िल
सबके चेहरों पे ख़मोशी का था आलम तारी
नज़्म सुनते ही बड़े वज्द में आई महफ़िल
— ग़ज़ाला तबस्सुम
तजकिरा = चर्चा
वज्द = खुशी ,आनंदित
वज्द = खुशी ,आनंदित