आ सखे
सांझ की बेला में निखरे रूप संध्या का सखे।
आ मिलो अब विरह की धूप का पहरा सखे।।
छोड़ सब बंधन जगत के नेह की लालिमा।
जोड़ नाता प्रीत का कहता मन पगला सखे।।
पँछी का कलरव अधूरा पीर ह्रदय में बसी।
नैन तकते आस अंतिम न सहा जाता सखे।।
बाँह पसारे खड़ी हूँ पुकार लो उस पार से।
टूटती साँसों की डोरी प्राण छूटें आ सखे।।
हो गयी मैली चदरिया फीकी फीकी बूटिया।
ले नई चुनरिया अब आ सखे,अब आ सखे।।
— सविता वर्मा ‘ग़ज़ल’