गीत
आ गये हैं सूखे-सूखे दिन।
फिर भिगोने आ गया फागुन।
बाँच पाती गंध की डोलें भ्रमर।
नाचती हैं आज कलियां झूमकर।
मदभरा है पवन, संयम डोलता,
त्याग तरुओं ने दिए वल्कल वसन।
फिर पलाशी टहनियाँ सजने लगीं।
प्रीत की शहनाइयां बजने लगीं।
शुष्क अधरों पर धरा के धर दिया।
फिर प्रकृति ने मौसमी चुम्बन सघन।
पीत पत्ते सब विदाई ले रहे।
नये पत्तों को वे आसन दे रहे।
नव कलेवर में धरा अब सज रही,
है प्रतीक्षारत सजन का आगमन।
होरियारी गोपियाँ रँगने चलीं।
गोप की अठखेलियाँ लगती भली।
अपने मोहन की प्रतीक्षा में सभी,
वीथियाँ भी सज गईं जैसे दुल्हन।
— डॉ. रश्मि कुलश्रेष्ठ