घनाक्षरी
प्रेम का गुलाल तूने मला मेरे गालों पे तो, शर्म से मैं लाल-लाल हो गई हूँ साँवरे।
वंशी की मधुर तान करती है भंग ध्यान इसके सुरों में कैसी खो गई हूँ साँवरे।
प्रीत की जो पड़ी धूप, निखरा है मेरा रूप, कैसी मैं अनूप आज हो गई हूँ साँवरे।
बिना छुए कोई अंग, तेरे जैसा हुआ रंग, अपना मैं रंग सारा खो गई हूँ साँवरे।
— डॉ. रश्मि कुलश्रेष्ठ