प्रेम नगर
सागर कितना भी गहरा हो
दुनियाँ का लाख ही पहरा हो
मंजिल पे दो दिल मिल जाते हैं
दीपक प्रेम की जल जाती है
कब रोक पाया है प्रेमी की राह
जब दिल करता है प्रेम की चाह
प्रेमी कब करता जग की परवाह
दीवार भी रोक ना पाती है राह
पर्वत भी राह का गर रोड़ा बन जाये
मिलन की राह ना वो रोक पाये
मोहब्बत परवान जब चढ़ जाता है
प्रेम नगर का रोग बढ़ जाता है
आँखों आँखों में बन जाती है जुबान
हो जाती है नजर से दिल की पहचान
अजीब है जग का प्रेम ए दास्तान
कुछ ना कर पाता है यह बेर्दद जहान
गर प्रेमिका की आँचल की छाया हो
प्रेम अगर सच्चा हो पाया हो
टुट जाती है परिवार की हर माया
प्रेमी प्रेमिका की हो जाती एक काया
मजनूं बन कर जग में वो आता है
लैला को अपने साथ ले ही जाता है
प्रेम ना देखता है जात पात का बंधन
प्रेम नगर का है अपना ही बन्धन
— उदय किशोर साह