गज़ल
जिसके ज़ख्म पे मैंने सदा मरहम लगाया है,
मेरी पीठ पर उस शख्स ने खंजर चलाया है
करो तवाफ-ए-काबा या लगाओ गंगा में डुबकी,
ना होगा कुछ अगर तूने किसी का दिल दुखाया है
वक्त के हाथ से कोई ना बच पाया यहां इसने,
सिकंदर और पोरस को भी मिट्टी में मिलाया है
उम्र भर बोए हैं काँटे जिसने लोगों की राहों में,
उसी ने घर के आँगन में एक पौधा लगाया है
धूप गम की मेरी हस्ती को कैसे छू भी सकती है,
मेरी माँ की दुआओं का जो मेरे सर पे साया है
मदद करना मेरे मौला भरोसे पर तेरे हमने,
हवाओं से शर्त रख के चिरागों को जलाया है
— भरत मल्होत्रा