बिना छत का मंदिर : शिकारी माता का मंदिर
हिमाचल प्रदेश कुछ बातों में बहुत निराला है। वर्ष भर बर्फ से ढकी ऊंची चोटियां, शीत मरुस्थल, रसीले सेब के बागीचे, कांगड़ा की चाय, रोहतांग पास और अभी कुछ समय पहले बनी मनाली को लेह-लद्दाख से जोड़ने वाली सुरंग के अंदर बनी लगभग 9 किलोमीटर लंबी सड़क जिससे बर्फ पड़ने पर भी यातायात वाधित नहीं होगा। ऐसा ही एक विशेष प्रकार का अनूठा मंदिर शिकारी देवी माता का है।
शिकारी देवी का यह मंदिर मंडी जिला की तहसील थुनाग में झंझेली घाटी के एक ऊंचे शिखर पर स्थित है। मुख्यतया पर्यटक और अन्य यात्री इस मंदिर के दर्शनों के लिए सुंदर नगर के पास नहर को पार कर चैल चौक होते हुए थुनाग और झंझेली पहुंचते हैं। रास्ते में कुछ स्थानों पर सड़क के दोनों ओर सेब के बागीचे लगे हैं। थुनाग से लगभग 5 किलोमीटर से पहले ही सड़क के दोनों ओर सेब के बागीचे लगे हैं। जून और जुलाई में यह फलों से लदे होते हैं तो बड़ा मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करते हैं। सड़क बिल्कुल पक्की है।
थुनाग से झंझेली कस्बा 2 किलोमीटर की दूरी पर है और यहां से लगभग एक किलोमीटर आगे से फारैस्ट रोड आरंभ होती है और वहां से 18 किलोमीटर की दूरी पर शिकारी माता का मंदिर है। इस मार्ग पर केवल जीप जैसी गाड़ी ही जा सकती है। सड़क कच्ची है और केवल अनुभवी चालक ही चला सकता है। श्रद्धालु तथा अन्य लोग भी स्थानीय टैक्सी से ही जाते हैं। आने जाने के लिए अच्छी व्यवस्था है। 18 किलोमीटर का मार्ग बड़ा हराभरा और सुंदर लगता है। कहीं घने पेड़ हैं और कहीं हरे चरागाह हैं। मंदिर जाने के लिए सीढ़ियां बड़ी अच्छी बनी हुई हैं। लगभग सब एक जैसी ऊंची हैं। शायद 80 के लगभग हैं। आधी सीढ़ियां चढ़ने पर दो दुकानें हैं जहां चाय मिल जाती है और हाथ धोने के लिए जल क्योंकि मंदिर जाने से पहले जूते उतारने आवश्यक हैं और फिर हाथ धोने के पश्चात ही मंदिर जाने की परम्परा है, इसलिए दुकान के पास ही जूते उतार कर मंदिर जाते हैं और वापसी पर चाय पी लेते हैं।
मंदिर एक चबूतरे पर बना है।5,6 सीढ़ियां चढ़ने पर एक द्वार के अंदर चारदीवारी में सामने ही माता की मूर्ति है और यदि पंडित जी हों तो प्रसाद मिल जाता है।आप अपना लाया प्रसाद भी वहां मूर्ति पर अर्पण कर बांट सकते हैैं। यहां आप चारों ओर देखें तो इस चोटी से ऊंची कोई चोटी नहीं दिखाई देती। बहुत दूर बर्फीले पहाड़ दिखाई देते हैं। चारों ओर देखकर बड़ा आश्चर्य जनक और बड़ा अच्छा अनुभव होता है। मंदिर के पिछली तरफ बड़े घने जंगल हैं। कुछ दशक पहले पंजाब और चंडीगढ़ के राज्यपाल श्री सुरेन्द्र नाथ हैलिकॉप्टर पर थे और इस शिखर के पास आकर उनका हैलिकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।उन दिनों वे हिमाचल प्रदेश के भी कार्यवाहक राज्यपाल थे। उस हैलिकॉप्टर में सवार किसी की भी न लाश नहीं मिली और न ही हैलिकॉप्टर का पता चला।पहले भी ऐसी दुर्घटनाओं का विवरण है।
हम लोग शिमला से बिलासपुर होते हुए जरोल, सुन्दर नगर, चैलचौक होकर रात को थुनाग पहुंचे थे और सवेरे 6 बजे थुनाग से शिकारी देवी मंदिर गये और वापस 10 बजे थुनाग में ही नाश्ता किया क्योंकि हमारे एक साथी बिलासपुर के पंडित जी थे जिन्होंने मंदिर में धोती चढ़ाने के बाद ही नाश्ता करना था। हमारा मंदिर जाने का प्रोग्राम जरोल में ही बना था परन्तु पक्का नहीं था।जो होना है वह वैसा ही होता है। पंडित जी ने शाम को ही अपनी मन्नत बताई और तभी एक टैक्सी वाला मिला और हमें मंदिर ले गया ।
ऐसा अनोखा मंदिर पहले सुना ही था परन्तु सामने देखकर बड़ा आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व लगा। भारत अपनी मंदिर निर्माण कला का सर्वोपरि माना जाता है। यहां सैकड़ों मंदिर एक से एक बढ़कर हैं और एक यह मंदिर जिस पर छत ही न हो, बड़ा विचित्र लगता हैं।
जनश्रुतियों के अनुसार पांडवों ने यहां तपस्या की थी। दुर्गा शक्ति रुपी माता ने पांडवों को कौरवों पर विजय का वरदान दिया था। उन्होंने शक्तिरुपी माता की मूर्ति स्थापित कर मंदिर का निर्माण आरम्भ किया परन्तु दीवारों से ऊपर नहीं बना सके। इसके बाद और राजाओं ने भी मन्दिर पर छत निर्माण के यत्न किए और आजतक कोई भी सफल नहीं हो सका। शीत काल में यहां बहुत बर्फ पड़ती है परन्तु मंदिर स्थल पर नहीं रुकती। ऐसी मान्यता है।
यह वन मंडल वन्य प्राणियों से भरा पड़ा है, अब तो इसे वाईल्ड लाइफ सैंक्चरी घोषित कर दिया गया है परंतु अंग्रेजी राज और इससे पहले यहां शिकारी आते थे और इस मंदिर से अपनी सफलता मांगते थे और सफल भी होते थे, शायद इसीलिए इस मंदिर का नाम शिकारी माता प्रसिद्ध हो गया है। आज भी हर वर्ष यहां एक लाख से ऊपर हर वर्ग के पर्यटक आते हैं, बहुतों की मन्नत पूरी हो जाती है।
करसोग क्षेत्र के श्रद्धालु अधिकतया पैदल ही यहां पहुंच जाते हैं।वे हर वर्ष आते हैं।उनका मार्ग वन के बीच बना पैदल मार्ग है।झंझैली और आसपास के श्रद्धालु भी पैदल ही यात्रा करते हैं।
— डाक्टर वी के शर्मा