कौन सी होली
रंगों की ये, होली हम सब,
खेल सकेंगे, क्या उमंग से?
पड़ी है सारी, गलियां सूनी,
मित्र भी नहीं, कोई संग में।।
फ़ीके लगते, चटक रंग भी,
फाग गीत भी, लगता फ़ीका।
नज़र लगी, खुशियों को किसकी,
कोई लगा दो, काला टीका।।
जंग छिड़ी है, युद्ध मचा है,
देखने को क्या, यही बचा है!
हर पल अब, लगता है जी लें,
जीवन जो भी, बचा-खुचा है।।
खून का रिश्ता, लाल हो रहा,
पैसा जी का जंजाल हो रहा।
लूट के अपने ही भाई को,
भाई अब मालामाल हो रहा।।
स्वार्थ की दुनिया, सोच तंग है,
हॅंसी है झूठी, खुशी बेरंग है।
कौन सी होली, लोग खेलते?
सोच के यह, नादान दंग है।।
— तुषार शर्मा “नादान”