छंद
प्रीति बन्धन में बंधा सा,तमतमाया सा कसा सा, दस्तके देता हुआ सा,द्वार पे आया ‘बसंत’ !
नींद से जागा हुआ सा,पीत वस्त्रों में सजा सा, देखता मुझको ठगा सा,द्वार पे आया ‘बसंत’ !!
बंधनों को तोड़ता सा,रास्तों को मोड़ता सा, रूढ़ियों को छोड़ता सा,द्वार पे आया ‘बसंत’ ;
‘शान्त’आतंकित डरा सा,है सशंकित भी जरा सा, पर उमंगों में भरा सा,द्वार पे आया ‘बसंत’ !!
— शांत