ग़ज़ल
गवार हूं मेरा दर्द कुछ खास नहीं होता
शीसा चुभे य कांटा मुझे अहसास नहीं होता।
जब भी लगी ठोकर हम रोकर संभल गए
गैर क्या अपना भी कोई पास नहीं होता।
मुझे किसी के साने की कीमत क्या पता
गवार न होते तो ये कच्चा हिसाब नहीं होता।
महफिल थी काबिलों की हम खामोश हो गए
दिल है के नहीं दिलमें ये आभास नहीं होता।
ये हम मानते हैं अब हम मगरूर हो गए हैं
के मुझको ही मेरे दर्द पे विश्वास नहीं होता।
जानिब ये एक बात है अब भी कहीं दिल में
धरती अगर न होती तो आकाश नहीं होता।
— पावनी जानिब