माँ मना करती रही कि घर में कैक्टस नहीं लगाया जाता। किन्तु सुशील बात कब सुनता माँ की। न जाने कितने जतन से दुर्लभ प्रजाति के कैक्टस के पौधे लगाए थे। आज अचानक उसे बरामदे में लगे कैक्टस को काटते देख रामलाल बोले, ‘‘अब क्यों काटकर फेंक रहा है? तू तो कहता था कि इन कैक्टस में सुंदर फूल उगते हैं? वो खूबसूरत फूल मैं भी देखना चाहता था।’’
‘‘हाँ बाबूजी, कहता था, पर फूल आने में समय लगता है, परन्तु काँटे साथ-साथ ही रहते। आज नष्ट कर दूँगा इनको!’’
‘‘मगर क्यों बेटा?’’
‘‘क्योंकि बाबूजी, आपके पोते को इन कैक्टस के काँटों से चोट पहुँची है।’’
‘‘ओह, तब तो समाप्त ही कर दो! पर बेटा, इसने अंदर तक जड़ पकड़ ली है! ऊपर से काटने से कोई फायदा नहीं!’’
‘‘तो फिर क्या करूँ?’’
‘‘इसके लिए पूरी की पूरी मिट्टी बदलनी पड़ेगी। और तो और, इन्हें जहाँ कहीं भी फेंकोगे ये वहीं जड़ें जमा लेंगे।’
‘‘मतलब इनसे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं?’’
‘‘है क्यों नहीं..’’ कहकर कहीं खो से गए।
‘‘बताइए बाबूजी, चुप क्यों हो गए?’’
‘‘तू अपनी दस बारह साल पीछे की ज़िन्दगी याद कर!’’
माँ के मन में उसने न जाने कितनी बार काँटे चुभोए थे। अपनी जवानी के दिनों की बेहूदी हरकतों को यादकर शर्मिंदा हुआ। माँ भी तो शायद चाहती थी कि ये काँटे उसके बच्चों को न चुभें।
‘‘मैंने तुझे संस्कार की धूप में तपाया, तू इन्हें सूरज की तेज धूप में तपा दे।’’ उसकी ओर गर्व से देख पिता मुस्कुराकर बोले।
फिर वह तेजी से कैक्टस की जड़ें खोदने लगा।
— सविता मिश्रा ‘अक्षजा’