वैदिक काल में भारतीय स्त्रियाँ
प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद और अथर्ववेद में 25 ऋषिकन्याओं का जिक्र है, जिनमें वाक्, आम्भृणी, घोषा, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, सची, रोमशा, श्रद्धा, कामायनी, यमी, वैवस्वती, लोपामुद्रा, मैत्रेयी इत्यादि हैं और सभी कालांतर में विदुषी हो गयी।
ऋग्वेद में लोपामुद्रा का कथन सारगर्भित है कि सत्य की साधना करने वाले देवतुल्य ऋषियों ने भी संतति प्रवाह चलाया है, वे भी जीवन के अंत तक ब्रह्मचारी ही नहीं रहे, उनकी भी पत्नियाँ थीं। कहने का स्पष्ट आशय है, वैदिक स्त्री दब्बू और शोषक नहीं थी, वह खुलकर बात रखती थी। लोपामुद्रा भी अपने ऋषि पति से भी संवाद करते हुए खुलकर बोलती है। एक ऋषिकुमारी है- इन्द्राणी। इन्द्राणी कहती भी है- मैं मूर्धन्य हूँ, उग्र वक्ता हूँ। एक अन्य श्लोक में रोमशा की उद्घोषणा है- जिस प्रकार गंधार प्रदेश की भेड़ें रोमों से भरी रहती है, उसी प्रकार मैं गुणों से भरपूर हूँ।
इसके साथ ही प्राचीन भारत में नारी शिक्षा का कृष्ण पक्ष भी रही है। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या को चिन्ता का कारण बताया गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्री को द्यूत तथा मंदिरा की श्रेणी में रखा गया है। शतपथ ब्राह्मण में स्त्रियों को असत्य बतलाई गई है। कई अवसरों में स्त्री और शूद्र के साथ शिक्षितों के भाषण को अनुचित बतलाया गया है। स्त्री को निष्कृष्ट मानते हुए ब्राह्मण गृहसूत्र, धर्मसूत्र स्मृति और पुराणों में शूद्र के साथ उल्लेखित किया गया है। उत्तरवैदिक काल में महिलाओं की सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की तुलना में कुछ कम हो गई थी।
प्राचीन धर्मशात्रों में स्त्री को आजीवन दास बतलाया गया है। मनु और याज्ञवल्वय के अनुसार स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं है, जब तक कुँवारी रहती है, पिता उसकी रक्षा करता है। युवावस्था में पति उसे नियंत्रित करता है और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है। स्त्री कभी भी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। यह बतलाया गया है कि पुरुष स्त्रियों को सदैव अपने नियंत्रण में रखें। यही कारण है, कालान्तर में पति की प्रभुता बढ़ती चली गई। पति को पत्नी का देवता माना जाने लगा यानी पतिदेव या पति परमेश्वर। स्वयंभू मनु ने स्त्री को अपने पति की देवता से तुलना करते हुए आराधना करने का उपदेश दिया है। रामायण और महाभारत में भी पति को देवतुल्य मानने के संकेत मिलते है, चाहे पति दुराचारी, कामी, लम्पट शीलहीन, गुणहीन, विद्याहीन और संस्कारहीन ही क्यों न हो ? तैतरीय संहिता में कहा गया है कि एक सदाचारी स्त्री दुराचारी पति से भी निकृष्ट है।
यह सच है, प्राचीन भारत में महिलाओं को कुछ अधिकार दिए गए थे। यह भी तथ्य है कि प्राचीन भारत में महिला शिक्षा में वृद्धि हुई। प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति महत्वपूर्ण थी। वे महत्वपूर्ण निर्णय लेती थीं और स्वयंवर के रूप में स्वयं के लिए पति चुनने की अनुमति थी। प्राचीन भारत में एक महिला को सम्मान किया जाता था और उसे समाज में उचित महत्व दिया जाता था, सूक्त भी है-
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: ।”
वैदिक काल की महिला दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों के महत्व को पाते हैं। वैदिक काल में यानी प्राचीन भारत में नारी शिक्षा उन्नत स्थिति लिए थी। प्राचीन काल में भारतीय महिलाओं को पुरुषों से श्रेष्ठ कहा जाता था। प्राचीन भारत में महिलाओं को महत्व दिया जाता था और वे उस दौरान भारतीय समाज में एक प्रमुख स्थान रखती थीं। प्राचीन काल में महिलाओं के लिए शिक्षा के लिए पहुंच बनाना आसान थी। प्राचीन भारत में बड़े पैमाने पर महिला शिक्षा के माध्यम से लोपामुद्रा, गार्गी और मैत्रेयी जैसे कई विदुषी आई।
महिलाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण का अधिकार प्राप्त था। प्राचीन भारत में महिला बुद्धिजीवियों ने शैक्षिक बहसों और विद्वानों की सभाओं में भाग लेकर प्रतिष्ठा अर्जित की, गार्गी प्राचीन समाज में अरनी जैसे पुरुषों के साक्षात्कार किये। उमयश्री भारती भी तो शंकराचार्य से शास्त्रार्थ की थी।
वैदिक काल में शिक्षा प्रणाली बहुत विकसित थी और तब वेद पढ़ायी जाती थी। वेद और वेदांगों को सिखाया गया था। प्राचीन भारत में महिला शिक्षा ने महिलाओं को महत्वपूर्ण अधिकार दिए। प्राचीन भारतीय ग्रंथ में महिलाओं के प्रभाव का वर्णन हैं। वेद व्यास रचित महाभारत में कौरवों को उखाड़ फेंकने के लिए पांडवों को जिस भाँति से द्रौपदी ने आर-पार की स्थिति तय कर दी, यह कम थोड़े ही है। के अनुनय का चित्रण करता है। वाल्मीकि रामायण की सीता अगर पतिभक्तिन थी, तो महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहनेवाली सीता धरती में समा कर धर्म निभाई।
प्राचीन भारत में स्त्रियों को सैन्य शिक्षा भी दी जाती थी। भारतीय नारी शक्तिस्वरूपा थी, जो कि देवी के रूप में प्रतिष्ठित थी। माता दुर्गा, माता काली, माता चामुण्डा, माता भवानी जैसी देवी नारियों के लिए वेदों में स्तुति की गयी हैं, यथा-
या देवी सर्वभूतेषु कालीरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमोनम:।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमोनम:।
वैदिक काल में संतानों में पुत्र को वीर व पुत्री को वीरा कहते थे। प्राचीन भारत में शिक्षा इस प्रकार की होती थी कि युवक वीर और युवती वीरा कहलाती थी, अन्यथा नारी शक्तिरूपा किस प्रकार बन सकती थी? इस प्रकार से शैक्षिक अभाव में बच्चे खुद ही पराक्रमी नहीं बन सकते।
संस्कृत में नारी के लिए पुरूंध्री, पुरंध्री, पुरंधि जैसे शब्दों का प्रयोग है। ऐसे शब्द की व्युत्पत्ति पुरंधारयति रूपेण होती हैं। पुरं का अर्थ होता है- नगर, नगर को धारण करने वाली या नगर की रक्षा करने वाली। इस शब्द का मौलिक अर्थ नगर को धारण करने वाली ही है, पर आज इसका अर्थ घर को धारण करने वाली के अर्थ में लिया जाता है। पुर अथवा पुरी शब्द महानगरों का वाचक है और उनकी रक्षा प्राचीनकाल में स्त्रियाँ करती थीं।
प्राचीन भारत की नारियों द्वारा किये जाने वाले इस कार्य से यह प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में देश या राज्य की रक्षा का कार्य पुरूष किया करते होंगे तथा नगर रक्षा का कार्य पुरूष किया करते होंगे तथा नगररक्षा का कार्य स्त्रियां करती रही होंगी। इस काल में यह भी पद्धति रही कि स्त्रियों को शस्त्रास्त्र विद्या सिखाकर समय पड़ने पर सेनापति नियुक्त की जाती रही हैं।
सनातन कथानुसार महिषासुर ने भवानी को पत्नी बनाने के लिए संदेश भेजा, तो उसने महिषासुर से कहा कि युद्ध में जो मुझे पराजित करेगा, वही मेरा पति होगा। यह संदेश वीरतापूर्ण है। वीरा भवानी ने असुरों का मर्दन की और महिषासुरमर्दनी कहलायी। इसप्रकार से वीरतापूर्ण उत्तर देनेवाली नारियां अबला कैसे हो सकती हैं ?