गज़ल
बिछड़ के तुझसे मुझको ये शहर अच्छा नहीं लगता,
कहां सजदा करूँ कोई भी दर अच्छा नहीं लगता,
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मैं जिसके नाम से बदनाम दुनिया भर में हूँ यारो,
उसे ही आज-कल मेरा ज़िकर अच्छा नहीं लगता,
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जिसे राहों में मैं जिसे आँसू बहाता छोड़ आया हूँ,
बिना उस हमसफर के ये सफर अच्छा नहीं लगता,
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मेरी मजबूरियां मुझको कहीं टिकने नहीं देती,
वर्ना है कोई जिसे अपना घर अच्छा नहीं लगता,
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खा ना जाएं झगड़े आपसी बच्चों के बचपन को,
मुझे मासूम सी आँखों में डर अच्छा नहीं लगता,
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इस दौर-ए-दुनिया में खुशामद भी लियाकत है,
हुकूमत को मेरा बागी तेवर अच्छा नहीं लगता,
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सबको गुमराह करता है बजाए राह दिखाने के,
मुझे इस कारवां का राहबर अच्छा नहीं लगता,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।