हम हैं शिकार, तुम हो शिकारी
धोखा देकर, फुसलाना भी, दुष्कर्मो में आता है।
मजबूरी में कराना कुछ भी, बलात्कार कहलाता है।।
सच जानकर, निर्णय का, प्राकृतिक अधिकार मिला।
झूठ बोलकर फँसाये जो, उसको पश्चाताप मिला।
धोखा देकर हमें फँसाया, इसका नहीं कोई गिला।
आँख बंदकर किया भरोसा, उसका मिला हमें सिला।
जाल बिछाकर शिकार बनाया, कैसा रिश्ता-नाता है?
मजबूरी में कराना कुछ भी, बलात्कार कहलाता है।।
जीवन नहीं है कोई सौदा, लाभ-हानि की बात नहीं।
हम तो सच के हमराही हैं, झूठ तुम्हारी हर बात रही।
हम हैं शिकार, तुम हो शिकारी, फंदा तुम्हारी बात रही।
शिकार का फंदा ढीला न हो ले, यही तुम्हारी बात रही।
आनन्द तुम्हें भी मिल न सकेगा, जो बोया मिल जाता है।
मजबूरी में कराना कुछ भी, बलात्कार कहलाता है।।
संघर्ष में ही सारा जीवन बीते, हमें कोई परवाह नहीं।
जीते जी हों साथ तुम्हारे, बनी ऐसी कोई राह नहीं।
अमानत जिसकी, उसकी हो, हम हड़पें ऐसी चाह नहीं।
मन के मीत से जा मिलो फिर से, हम तुम्हारे हमराज नहीं।
दिल की राह पर निडर बढ़ो तुम, वह गीत प्रेम के गाता है।
मजबूरी में कराना कुछ भी, बलात्कार कहलाता है।।