ग़ज़ल
तीर चुपचाप है कमां चुप है।
जो जहाँ है अजी वहां चुप है।
यूँ तो वाचाल है बहुत लेकिन,
हो रहा ज़ुल्म पर जहां चुप है।
लग रहे हैं अजीब से नारे,
धर्म का फिरभी कारवां चुप है।
लुट रहा बाग का हरिक पौधा,
वज़्ह क्या है जो बागबां चुप है।
आज देता नहीं सज़ा कुछ भी
बन तमाशाई आसमां चुप है।
— हमीद कानपुरी