संकीर्ण सोच
थी एक सांवली,
भोली भाली बावली,
घूमती रहती दरबदर,
ना सगा ना कोई घर,
आंखों में थी बड़ी कशिश,
उम्र शायद होगी चौबीस,
झरोखे से देखा कई बार,
देख उसे आता करार,
ना जाने क्या था उसमें,
मन को ना कर सका वश में,
सोचा उससे करूंगा बात,
किस चीज का लगा आघात,
फिरती क्यों हो यूँ बेबस,
किसने कर दिया विवश,
कुछ सोच बुलाया उसे,
पूछूं कैसे कि दिल ना दुखे,
थी वह बड़ी ही स्वाभिमानी,
कहा उसने कुछ नहीं बतानी,
ज़िद लेकिन हमने भी ठानी,
सुना फिर उसकी कहानी,
लोगों की नजरें थी बुरी,
आबरू उसकी गई थी लूटी,
किया फिर यह दृढ़ निश्चय,
क्यों करूं किसी से भी भय,
दूंगा उसे जगत में मान,
घर की मेरी बनेगी शान,
निभाए सारी रस्मो रिवाज,
लोगों की फिर आने लगी आवाज,
नीच कुलटा को ले आए घर,
समाज को बना दिया बदतर,
निकालो इसे घर से बाहर,
गाली गलौज शुरू हुआ,
बरसाने लगे वह पत्थर,
हमने भी फिर कमर कसी,
उड़ाते क्यों हो तुम हंसी,
किसी ने डाली गर बुरी नजर,
बच नहीं पाओगे तुम सब कायर,
है यह इस घर की रानी,
लाया हूं इसे ब्याह कर,
घर पे मत मारो पत्थर
घर पर मत मारो पत्थर|