मुक्तक/दोहा

हमने भी सीखा-23

मुक्तक

तुम मुझे पृथ्वी कहते हो,
पृथ्वी दिवस भी मनाते हो,
साथ ही मुझमें हरियाली की जगह
प्लास्टिक और पॉलिथिन का
जहर उगाते हो,
पर अमृत चाहते हो, कैसे पाओगे!

मैं भूमि हूं, छिपे हैं मुझमें अंकुर कई,
मीठे फल चाहो, मीठे फल दूंगी,
खट्टे-चरपरे चाहो, वह भी दूंगी,
तुम नफरत का जहर बोना चाहो,
तो तुम्हें वही तो मिलेगा, जो तुमने बोया है!

मायूसी में भी जिंदगी कट ही जाएगी
तुमसे मिलने की तमन्ना बाकी रह गई
तो मायूसी तुम्हारे हिस्से में भी
अवश्य आकर तुम्हें सताएगी.

खुशियों ‘के ‘शोर ‘
ने ‘गम ‘को ‘बौना’ कर दिया,
हमने जिंदगी को
‘खिलौना ‘ कर दिया.

जिधर देखूं दिखता है अक्स तेरा,
शायद
जगत नियंता भी ऐसा ही होगा.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244