हमने भी सीखा-23
मुक्तक
तुम मुझे पृथ्वी कहते हो,
पृथ्वी दिवस भी मनाते हो,
साथ ही मुझमें हरियाली की जगह
प्लास्टिक और पॉलिथिन का
जहर उगाते हो,
पर अमृत चाहते हो, कैसे पाओगे!
मैं भूमि हूं, छिपे हैं मुझमें अंकुर कई,
मीठे फल चाहो, मीठे फल दूंगी,
खट्टे-चरपरे चाहो, वह भी दूंगी,
तुम नफरत का जहर बोना चाहो,
तो तुम्हें वही तो मिलेगा, जो तुमने बोया है!
मायूसी में भी जिंदगी कट ही जाएगी
तुमसे मिलने की तमन्ना बाकी रह गई
तो मायूसी तुम्हारे हिस्से में भी
अवश्य आकर तुम्हें सताएगी.
खुशियों ‘के ‘शोर ‘
ने ‘गम ‘को ‘बौना’ कर दिया,
हमने जिंदगी को
‘खिलौना ‘ कर दिया.
जिधर देखूं दिखता है अक्स तेरा,
शायद
जगत नियंता भी ऐसा ही होगा.