छंद
1
सिहों से दहाड़ कर चढ़े जो पहाड़ पर आए बैरी मारकर उनको सलाम है ।
कारगिल जीतकर शत्रु भयभीत कर आए हैं जो वीरवर उनको सलाम है ।।
मिट गए हंसकर नीचे मातृभूमि पर मुड़ के न आए घर उनको सलाम है ।
देश की संभाल को देकर अपने लाल को जी रहे जो हंस कर उनको सलाम है ।।
2
धरती को बेटियों से सूना मत कीजिए इनको मिटाते समय थोड़ा तो पसीजिए ।
बेटियां पढ़ा के खड़ी पैरों पर कीजिए और फिर शादी में दहेज मत दीजिए ।।
सभ्यता के माथे का दहेज काला दाग है इस अभिशाप को न खाद पानी दीजिए ।
ये बेटियां भी होती है कलेजे का ही टुकड़ा इनकी उड़ान को भी आसमान दीजिए ।।
3
मुश्किलों से खेलकर धूप छांव झेलकर ,हर एक पेट को ये अन्न उपजाते हैं ।
मिट्टी से यह सने हुए पर्वतों से तने हुए ,खेत की ये मेंढ पर तन झुलसाते हैं ।।
धुर कश्मीर से यह कन्याकुमारी तक ,जीत कर क्षुधा मन – मन मुस्कुराते हैं ।
इनकी ही तपस्या से समृद्धि – वृष्टि होती है धरती के ये आनंद- घन कहलाते हैं ।।
4
पेट में संभालती लहू से है पालती ,इसकी आशीष से यह धरा मुस्काती है ।
सृजन की बेल यह दीए में यूं तेल यह ,इसके आलोक में यह धरा उज्जियाती आती है ।।
जीवन में रंग देती जीने के यह ढंग देती, जीवन की धरती को प्रेम से महकाती है ।
इसके बिना शिव शव रह जाता है ,उजले संसार की यह दीया -तेल- बाती है।।
— अशोक दर्द