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दोषी हम भी

हमारा जीवन अनेक विडंबनाओं और विवशताओं के बीच बीतता है। हम खुद को,औरों को या भाग्य को दोषी मान घुट घुटकर जीने को विवश महसूस करते हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या उपरोक्त को दोषी मानकर ही इतिश्री मान लेने भर से संतुष्ट हो जायेंगे हम या आप?
वास्तव में हम समझ नहीं पाते कि कि अपने, अपनों या अन्य किसी की भी वर्तमान दशा के जिम्मेदार हम भी हैं यो हो सकते हैं। क्योंकि परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं होता, लेकिन बहुत बार उन परिस्थितियों को पैदा करने में जाने अंजाने हमारा सीधा हाथ होता है और सब कुछ जानते हुए भी हम पल्ला झाड़ लेते हैं।
उदाहरण के लिए हमारा आपका बच्चा हमारा आपका सम्मान नहीं करता, बात नहीं सुनता तो क्या सिर्फ वही दोषी है? नहीं ,क्योंकि हमने अपने मां बाप के साथ जो व्यवहार किया वो उसने देखा और उसे आत्मसात कर लिया।
कोई मां बाप यदि अपने ही बच्चों के खिलाफ थाने या अदालत में जाता है तो क्या खुशी से जाता है? नहीं, फिर भी हम इज्जत की दुहाई देते हैं। उस समय हम जरा सा भी नहीं सोचते कि हमनें किस तरह उनका जीना हराम कर रखा था। ऐसा ही पति पीड़ित पत्नियों के साथ भी है।
एक नव ब्याहता दुर्घटना में अपने पति को या ससुराल पक्ष के किसी भी सदस्य के साथ हुई घटना दुर्घटना के लिए मनहूस कैसे हो गई? कौन गारंटी ले सकता है कि उसके न होने से उक्त घटना, दुर्घटना नहीं होती। क्या उसके पहले परिवार में कोई घटना, दुर्घटना या किसी की मृत्यु नहीं हुई।
एक शिक्षित बुद्धिमान युवा को नौकरी न मिलने के लिए दोषी ठहराना या ताने दे देकर आत्महत्या करने पर विवश करना हमें,आपको दोष मुक्त मानने के लिए काफी है?
प्रशासनिक लापरवाही, भूल या किसी के षड्यंत्र से एक सीधे साधे व्यक्ति को अपराधी सिद्ध करा देने भर से वो खूंखार रहा होगा, ये धारणा उचित है।
किसी महिला से जब उसके परिवार ,समाज से किसी भी स्तर पर हुई प्रताड़ना और उसके बाद उसके भटकते कदमों के लिए उसे चरित्र, आवारा, वेश्या, कुलटा, कुलच्छनी कहने भर से क्या हम आप पाक साफ हो गए? उसके द्वारा उठाए गये किसी भी अमर्यादित कदम के लिए सिर्फ उसे ही दोषी मान पल्ला झाड़ लेने से हम धर्मात्मा बन गए?
अधिसंख्यक परिस्थितियों का सूत्रपात हमारे आप के द्वारा ही होता है और चटखारे लेकर दूसरों की बुराइयां भी हम आप खुश होकर बड़ी शान से बखानते हैं। उस समय हम आप सामने वाले की स्थिति परिस्थिति पर जरा भी गौर नहीं करते या यूं कहिए करना नहीं चाहते।यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे अवसर की तलाश में रहते हैं।
किसी औरत का संबंध विच्छेद होने पर हम आप उसका दोष गिनाते नहीं थकते, लेकिन जब वैसा ही कुछ आपकी बहन, बेटी का साथ होता है तब आप अपनी सुविधानुसार बहाना बनाते हैं।
यही नहीं हम सब कुछ अपनी सुविधानुसार ही तय करते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि इसे अपना एकाधिकार मानते हैं।
न्याय की आस में भटकते बेबस को मजबूरन कानून को हाथ में लेने पर उसे दोषी ठहराने भर से क्या हम, आप, समाज, सरकार बड़े सज्जन, सुशील और पुजारी हो गए?
सड़क पर हुई दुर्घटना में हमेशा बड़े वाहनों को ही दोषी माना जाता है। राह चलते अचानक किसी के आ जाने से हुई दुर्घटना के लिए भी वाहन चालक को ही जिम्मेदार माना जाता है।
परीक्षक की मानवीय भूल से बच्चों के नंबर कम आये या वे असफल हो गए तो भी हम बच्चों को ही दोषी मान बैठते हैं।
चिकित्सक के अथक प्रयासों के बाद भी हम किसी की मृत्यु पर चिकित्सक को हत्यारा बताने लगते हैं।
माना कि दोष इसका भी रहा होगा, तो उसका भी तो कुछ रहा ही होगा। बिना किसी ठोस कारण के महिला हो या पुरुष, परिवार या समाज ऐसे कदम नहीं उठाता जिससे उसकी जग हंसाई हो या उसका जीवन नर्क बन जाय।
व्यक्ति हो, परिवार हो, समाज हो या राष्ट्र हो।हर स्थिति परिस्थिति के लिये वो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में जिम्मेदार होता है।भले ही देख कर नजर अंदाज भी क्यों न किया हो।
मेरा निजी तौर पर मानना है कि दोषी कौन है या नहीं है, उस पर गुणगान करने से पूर्व हम सबको ससमय की परिस्थितियों पर भी गौर करने की जरूरत है।अगर बिना सही और तथ्यपरक जानकारी के हम यूं ही मियां मिट्ठू बनते रहे , तो निश्चित मानिए हम भी तिरस्कार, उपहास और उपेक्षा का पात्र बनने से नहीं बच सकेंगे। इस बात को गांँठ बांँध लीजिए।

 

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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