धर्म
कौन धर्म,कैसा धर्म,किसका धर्म?
कहां बचा है धर्म?
व्यक्ति से लेकर परिवार तक
खेत से लेकर खलिहान तक
जाति से लेकर समाज तक
मंदिर की घंटियों से लेकर
मस्जिदों की अज़ान तक
विश्वास ही नहीं अविश्वास तक
अपने और परायों तक
हर जगह धर्म का क्षरण हो रहा है,
जैसे धर्म धर्म नहीं संक्रमण हो गया है।
औलाद, माँ, बाप , परिवार, समाज में भी
कहां धर्म दिखता है,
वृद्धाश्रमों में कांपते बुजुर्गों में
कौन सा धर्म झलकता है
धर्म का ही शिकार ही तो दिखता है।
औलादें धर्म से बेपरवाह हैं
रिश्तों का कत्ल सरेआम हो रहा है
अपना ही अपनों का कत्ल कर रहा है।
सड़कों पर बेटियां कहां सुरक्षित है,
किस धर्म की आड़ में
उनकी अस्मत आरक्षित हैं,
कितने घिनौने काम खुलेआम हो रहे हैं
आखिर किस धर्म की आड़ में
व्यभिचार हो रहे हैं।
अब क्या क्या बताऊं आपको
अंजान तो नहीं आप भी।
लगता है अब तो धर्म भी
दुकान का सामान हो गये हैं।
सब भूल गए धर्म अपना
दुकानदार और खरीददार हो गये हैं।
मैं जाति धर्म की बात नहीं करता
मैं खुद का, एक व्यक्ति,एक रिश्ते का
बखान कर रहा हूं,
मर रहे इंसानी धर्म के गीत गुनगुना रहा हूं,
हाय धर्म, हाय धर्म कहकर छाती पीट रहा हूं
धर्म का झंडा उठाए बड़े शान से चल रहा हूं।
धर्म धर्म धर्म जोर जोर से चीखा रहा हूं।