दिन में तारे दिख जाना
बिटिया ऑफ़िस के लिए निकल चुकी थी| पतिदेव भी नाश्ता कर चाय पी रहे थे| मैं अपने लिए हल्की सब्जी बना रही थी रसोई में। ‘बड़ी बीमारी’ की तो दवा ले चुकी थी बस शुगर(मधुमेह) की दवा लेने की सोच ही रही थी कि साहब बोले, “अच्छा जा रहा हूँ”| गैस की लौ मंदी कर पकती सब्जी छोड़, उन्हें ‘सी-ऑफ़’ करने के लिए सीढ़ियों तक आ गई। जाते-जाते वे कुछ बोले पर समझ नहीं आया तो फिर से पूछा- क्या कह रहे हो जी!
“अरे भाई सब्जी वाला आ रहा है तुमने एक-दो सब्जी लेनी हो तो ले लो, मैं जा रहा हूँ|” फिर क्या था! दवाई ले नहीं पाई| बालकोनी में गई| सब्जी वाले को आवाज़ लगाकर बुलाया- भैया! तनिक रुको, नीचे ही आ रही हूँ|
ज़्यादा भारी सामान उठाना मना था तो बस सौ रुपल्ली साथ लेकर सीढ़ियाँ उतर गई| पाँच मिनट ही लगे होंगे, एक पॉलिथीन मैंने पकड़ा, बाक़ी, सब्जी वाले भैया को बोला, ऊपर घर तक छोड़ दो| सीढ़ियाँ चढ़ने लगी तो मन में कुछ खट्का-सा लगा| और ये लो! अनहोनी तो हो ही गई!!!!
दरवाज़ा ऑटोमेटिक लॉक वाला था| जाते समय याद ही नहीं रहा कि उसे खुला रहने दूँ या चाबी साथ लेकर उतरूँ| याद भी कैसे रहता! मैं तो उतरती ही नहीं नीचे| करोना-काल में बाहर के सब काम तो ‘ये’ ही करते हैं|
घबराहट के मारे पूरा शरीर पसीने में भीग गया| दरवाज़ा लॉक! हाथ में सब्जी की थैलियाँ| सब्जी वाले को बोला- भैया अब क्या करूं??????? न चाबी, न मोबाइल! ताला भी कैसे खुले, कैसे टूटे! उसी से ‘इनको’ फ़ोन करवाया| पतिदेव का नंबर था न उसके पास| हर दो-तीन दिन बाद सुबह आकर फ़ोन करता है इनको कि ‘नीचे आ गया हूँ कुछ लेना हो तो ले लो’
अभी ‘ये’ कुछ ही दूर पहुँचे होंगे| बोले, ‘सब्जी वाले से ही कहो-चौक से जाकर चाबी वाले को बुला लाए’ पर उसने तो साफ़ इंकार कर दिया- कहाँ जाना है मुझे तो मालूम नहीं| वैसे भी अपना ठेला छोड़कर काम के समय कहाँ जाता बेचारा!
कोई सोचे तो इस समय सबसे बेचारी तो मैं ही थी| गैस पर सब्जी जल के सड़ जाती, बारह बजने को थे! कुछ खाया भी नहीं था, यह तो शुक्र था कि शुगर की दवा भी नहीं खा पाई थी नहीं तो आज तो किसी के घर ही कुछ खाना पड़ता| बीस-तीस मिनट से अधिक भूखा भी कैसे रहती दवा लेकर|
पसीने से भरी, घबराहट में पड़ोसियों की ‘बेल’ बजा दी| दोनों, मम्मी-बेटी भी मेरी हालत देखकर घबरा गयीं| पंखा खोलकर बिठाया, पानी लाने गयीं, सब्जियों की थैलियाँ अपने घर रखीं| पर! मुझे कहाँ चैन था| ताला तुड़वाना कोई आसान काम था क्या? वैसे भी दिनदहाड़े चोरियां होती हैं यहाँ| सब्जी के जल जाने का डर और!
इतनी देर में वह सब्जी वाला भैया वापस आया कि सर का फ़ोन है| बात की तो कहने लगे- नीचे से तरुण को बुला लो, उससे कह दो कि चाबी वाले को बुला लाए|
पंखे की हवा से कुछ पसीने सूखे, पानी पीया| पड़ोसियों की बिटिया ने कहा- भाभी आप बैठो, मैं तरुण को बुला लेती हूँ|
वह नीचे उतरी| मैं आंटी के पास बैठी पर मन में खलबली-बेचैनी बहुत हो रही थी| बैठकर आराम करने का टाइम ही कहाँ था|
ख़ुद सीढ़ियाँ उतरने लगी तो एक ख़याल ज़ेहन में कौंधा!
‘क्यों न किसी को अपनी बालकनी से घर में चढ़वाया जाए, दरवाज़ा तो लक्कीली मैं खुला ही छोड़ आयी थी जब सब्जी वाले को रोकने गई थी| दिमाग़ की बत्ती जली| बस फिर क्या था…… अभी नीचे तरुण भैया से कहने की सोच ही रही थी कि भैया कहीं से सीढ़ी का इंतज़ाम करवा दो, बालकोनी से चढ़कर कोई घर में घुस सके तो बस फिर अंदर जाकर कुण्डी ही तो खोलनी है|
और फिर!!! चमत्कार हुआ! हाँ चमत्कार ही तो था| तरुण भैया के घर की तरफ़ मुँह करके उनसे कह ही रही थी कि तभी ‘पोल’ से इंटरनेट-केबल ठीक करने वाले दो लड़के अचानक दिखाई पड़े, एक लंबी-सी स्टील की सीढ़ी हमारे पोल पर लगाए!
मेरा दिल बल्लियों उछल गया| मां भगवती का नाम रट रही थी अब तक| एक ही पल में लाखों प्रणाम भेज दिए उन दोनों देवदूतों के लिए|
इसे कहते हैं न! एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है और साथ ही साथ मां भगवती परेशानी देती है तो उसका हल भी उनकी कृपा से मिल ही जाता है बस कुछ देर माया अपना रंग ज़रूर दिखाती है और ऐसे में दिन में तारे नजर आ जाते हैं|
चुप हैरान से वे दोनों लड़के मुझको देख रहे थे कि क्यों यह महिला चोरों की तरह बालकनी से अपने ही घर में चढ़ने की बात कर रही है|
तब तरुण भैया ने ही कहा- भाभी मैं जाता हूँ और उन्होंने यह कहकर सारी परेशानियां हल कर दीं| देखते ही देखते सीढ़ी पर चढ़ने लगे और देखिए सीढ़ी का आख़िरी पायदान बिल्कुल छज्जे को छूता हुआ! जैसे नाप कर ही सीढ़ी भिजवाई हो माता रानी ने|
भैया भीतर से दरवाज़ा खोल कर खड़े थे जब मैं साँस थामे घर तक पहुँची| साँस में साँस आई भीतर जाकर बात कर| सबसे पहले गैस बन्द की|
भगवान का शुक्र है कि सब जल्दी हो गया और सब्जी जलने से बच गई! अपना मोबाइल हाथ में उठाया और पतिदेव का नंबर घुमाया तो यूँ लगा जिंदगी पटरी पर लौट आई|
— डॉ पूनम माटिया