पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य
‘खींचो न कमान न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’
मनुष्य प्रारंभ से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का रहा है। प्रत्येक घटनाओं, सूचनाओं को जानने के साथ उसे किस प्रकार क्रियान्वित किया जाए। यही जानने की जिज्ञासा सदैव मन में रहती है। इसके लिए नारद मुनि ने सर्वप्रथम मौखिक रूप में पत्रकारिता के द्वारा प्रचार-प्रसार किया। भारत में पत्रकारिता का कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं हैं। कभी-कभी कुछ राज्यों में राजकीय घोषणाएँ होती थी, जिन्हें डुग्गी पीटकर जनता के समक्ष पहुँचा दिया जाता था। अनेक राजकीय घोषणाओं को शिलाखंडों, स्तंभों तथा मंदिरों पर उत्कीर्ण कर देते थे। भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही समाचार साधनों के क्षेत्र में नए युग का प्रारंभ हुआ। मुगलों ने संचार सेवाओं के लिए सूचनाधिकारियों का देशभर में गठन किया साथ ही संवाद लेखकों की नियुक्ति की, जिन्हें (वाक्यानावीस) कहा जाता था। बहादुर शाह के शासन काल में हस्तलिखित सिराज-उल-अखबार का प्रकाशन किया। इसके पश्चात् अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में पहला छापाखाना गोवा में सन् 1557 में स्थापित हुआ। जिसमें मलयालम भाषा में पहली ईसाई धर्म की पुस्तकें छपी। दूसरा प्रेस सन 1578 में तमिलनाडु के तिनेवली जिले के पौरीकील नामक स्थान पर लगा। इसके पश्चात् 1779 में कोलकाता में सरकारी छापखाने की स्थापना हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही छापेखाने की दुर्दशा भी प्रारंभ हो गई क्योंकि अंग्रेज अधिकारी भारतीयों को स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करने देते थे। अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करने पर उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। ऐसे ही जेम्स ऑगस्टन हिकी ने बंगाल गजट अथवा ‘केलकट्टा जनरल एडवर टाइजर’ नामक पत्रिका का आरंभ 29 जनवरी 1780 को अंग्रेजों के विरुद्ध किया। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी के शासकों ने हिकी को राजद्रोही करार दिया। बंगाल गजट दो पृष्ठों का छोटा सा पत्र था। जिसमें तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंगज के विरुद्ध लिखा। इससे सरकार ने सबसे पहले पोस्ट ऑफिस में बंगाल गजट को रोक दिया। इसके पश्चात् राजाराम मोहन राय ने 1821 में फारसी भाषा में पहला साप्ताहिक ‘मिरातुलअखबार’ प्रकाशित किया। दूसरा पत्र संवाद कौमुदी तथा बंगदूत प्रकाशित हुआ। शनै: शनै: पत्रकारिता के क्षेत्र में विकास होता गया। भारत में 1826 को ‘उदंत मार्तंण्ड’ पत्र भारतीय मूल के संपादक पं० युगल किशोर सुकुल ने कोलकाता से हिंदी भाषा में निकाला। इसके पश्चात पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक भारतीयों का योगदान रहा जिससे अनेक पत्रिकाओं का प्रकाशन होता रहा। लेकिन कुछ विरोधी भी थे जो पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के इच्छुक नहीं थे इसीलिए पत्रकारिता समय उपरांत सामाजिक, राजनैतिक संबंधों की चरमराती व्यवस्था, दम तोड़ते न्याय तंत्र और अर्थतंत्र मानवीयता के प्रति अन्याय करने की विडम्बना और त्रासदी को अपना विषय बनाकर सामाजिक जागरूकता के प्रति आगाह करती है। पत्रकारिता कहीं भी किसी भी देश की रही हो, उसने अपने स्वस्थ वास्तविक स्वरूप को बनाने में विभिन्न शासकों की अवहेलना को सदैव झेला। भारत में अंग्रेजों ने पत्रकारिता पर अनेक प्रतिबंध लगाया, अनेकों बार भारतीयों को जेल भेजा फिर भी भारत, चीन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान आदि देशों में पत्रों का प्रकाशन हुआ। सर्वप्रथम ब्रिटेन (1620) अमेरिका (1690) में विश्व के पहले समाचार पत्र प्रकाशित हुए। तभी से पत्रकारिता में नई क्रांति के स्वर गुंजित होने लगे। आज विश्व में लगभग 30 देश ऐसे हैं जहां पत्रकारिता का व्यापक रूप में प्रचार-प्रसार हो रहा है। अधिकांश देशों में लोग पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हैं। इससे उनके व्यक्तित्व में व समाज के निर्माण में सहयोग प्रदान होता हैं। जिससे लोगों की मानसिकता में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। अनेक वस्तुओं का व्यापार जो पहले विभिन्न देशों की सीमाओं में सीमित दायरे में था। अब विश्व मंच पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार का प्रमुख अंग बन गया है। विश्व के विकसित देशों जापान, अमेरिका, सोवियत संघ में निरंतर प्रयास हो रहे हैं। किस प्रकार उपग्रह के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ समाचार छापे जा सके, जिससे अधिक से अधिक लोग एक समय में नवीन समाचार प्राप्त कर सकें। चीन में यह प्रयास निरंतर हो रहा है। डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने प्रमुख देशों में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों के आँकड़ों का विवरण दिया। जिनमें दैनिक समाचार पत्रों की संख्या एशिया में सबसे अधिक (4128) है, उत्तरी अमेरिका (2200) यूरोप (1825) तथा अन्य देशों में सबसे पहले चीन (1908) संयुक्त राज्य अमेरिका 1761 पश्चिमी जर्मनी (1093) भारत (793) है। विश्व के विभिन्न देशों से निकलने वाले समाचार पत्रों के संबंध में एक जैसी नीति नहीं अपनाई जाती। कुछ देशों में समाचार पत्रों को अत्यधिक स्वतंत्रता है। किसी विशेष परिस्थिति में ही प्रतिबंध लगता है। कुछ देशों में समाचारों में सरकारी नीतियां अनुशासित रूप में होती है। जिससे सम्पादक द्वारा स्वतंत्र रूप से समाचारों का प्रकाशन नहीं किया जा सकता। समाचार पत्रों के संबंध में कोई सार्वभौमिक नीति कभी नहीं बनी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर भी सर्वमान्य आचार संहिता का विकास नहीं हो सका। केवल समय-समय पर अनुभव किया जा सकता है।
विश्व पत्रकारिता के संदर्भ में विभिन्न देशों के समाचार पत्र जगत में कुछ सुधार हुए है। जिससे संभवतः विकास संभव है। लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों के मत है कि क्या समाचार पत्रों को अपने ढंग का एक अलग सामाजिक संस्थान नहीं मानना चाहिए और क्या संपादकीय कर्मचारियों को अधिक स्वतंत्रता, सुरक्षा तथा प्रबंध व्यवस्था में अधिक योगदान नहीं दिया जाना चाहिए। इस देश से ब्रिटेन, जापान, फ्रांस तथा पश्चिमी जर्मनी के कुछ पत्रों जैसे फ्रांस के ल मोन्द, जापान के असाही शिंबून, अमेरिका के मिलवाकी जर्नल, ब्रिटेन के दि संडे टाइम्स तथा डेनमार्क के ‘पोलिटीकेन’ ने ऐसी व्यवस्था की है। जिससे संपादकीय कर्मचारी प्रबंध में और उसके स्वामित्व में हिस्सा तथा नीतियों के निर्णय में अपना सहयोग दे सकते हैं।इस व्यवस्थाओं का पत्रकार जगत के लिए निश्चय ही अपना महत्व है। इससे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई चेतना का नव संचार होगा। इससे जुड़े लोगों के जीवन में सुरक्षा उनकी अभिव्यक्ति में स्वतंत्रता, आर्थिक क्षेत्र में सुदृढ़ता, सामाजिक सुरक्षा तथा हितों का विकास होगा। इसके द्वारा पत्रों में वैचारिक अभिव्यक्ति और लोकतंत्रीय भावनाओं के विकास को बल मिलेगा। विभिन्न व्यवस्थाओं के प्रति विश्व पत्रकारिता में यदि कोई आम सहमति बन सके तो वह अधिक सजीव, सार्थक एवं महत्वपूर्ण होगा। इसके लिए सोशल मीडिया को सशक्त भूमिका का निर्वहन करना होगा। तभी प्रेस का अस्तित्व बना रहेगा।
— डॉ. पूर्णिमा अग्रवाल