मुक्तक
न्याय को दरबारों की चौखट, नाक रगड़ते देख रहे हैं,
गरीब को न्याय की ख़ातिर, दर दर भटकते देख रहे हैं।
सरकारों से जिसका मतभेद, या मुँह लगने की ठानी,
अनगिनत आरोपों में, भाँति भाँति के प्रतिबंध देख रहे हैं।
पुलिस प्रशासन और न्याय, सब बिके हुए हैं,
बिना रीढ़ के जाने कैसे, अब तक टिके हुए हैं।
कठपुतली से नाच नाचते, डोर कहीं हाथों में,
स्वाभिमान तज, सत्ता के कदमों में झुके हुए हैं।
— अ कीर्ति वर्द्धन