कविता

डोली

बचपन बीता पिता के घर में
माँ ने पाला घर के आंगन में
सखियों के साथ खेले कूदे
हो गए आज पीहर से पराये
बड़े सपने संजोए हुए सबने
हल्दी,महेंदी,की रीति निभाई
रीति निभाई सबने आज सगाई
कीआज बेटी तो हो गयी पराए
सजी धजी खड़ी डोली है
दुल्हन भी सजी खड़ी  है
डोली को चार लोग उठा रहे है
दुल्हन भी नए सपने सजा रही है
मन मे उमंगों का उठ रहा सेलाब    है
माता पिता का रो रोकर हाल बुरा है
भाई बहन मिल मिलकर रो रहे है
साथ बिताए कितने हमने साल है
कभी लड़ना ,प्यार कभी मनुहार है
माँ के जिगर का टुकड़ा विदा हो रहा है
पिता को तो रो रोकर बुरा हाल हुआ जा रहा है
पिता की परी,रानी आज अपने सुसराल चली है
डोली में बैठ अपने प्रिया के घर चली है
— पूनम गुप्ता

पूनम गुप्ता

मेरी तीन कविताये बुक में प्रकाशित हो चुकी है भोपाल मध्यप्रदेश