/ सबके साथ चलने का सुअवसर दें /
बच्चे की भावनाएँ जन्म के साथ होती हैं। वह अपनी माँ के पेट में ही बहुत कुछ सीखता है। परिवार के संस्कार का विकास धीरे – धीरे उसके अंदर विकसित होते हैं। वह अपने आस – पास के वातावरण के साथ संतुलन बनाये रखना सीखता है। माँ की गोद में ही वह सुरक्षा महसूस करता है। वह न केवल अपने बॉप के दिल की आवाज़ सुनता है बल्कि विचारों को यहाँ तक की इच्छाओं को भी अपनाता है। परिवार के विचारों के साथ चलने में सक्षम बनता जाता है। आस्था, श्रद्धा, विश्वास कई बातों का वह अंधानुकरण करना शुरू करता है। छुटपन में ही वह अपना पराये का भेद करने में लग जाता है। कई संस्कार उसके अंदर रूढ़ बन जाते हैं। वैज्ञानिकता के बगैर अंधानुकरण से वह मुक्त होना बहुत कठिन हो जाता है। अनुभव की पाठशाला में व्यावहारिक रूप से अनुभव हो जाने के बाद ही उनकी अपनी पुरातनी मान्यताएँ व संस्कार बदलते हैं। इसलिए बच्चे के विचार बहते पानी की तरह होना चाहिए न कि नाबदान। बच्चे के विकास में अनुभव ही सृजनशीलता को जन्म देता है। एक ही जगह बिठाकर उसे शिक्षा देने के बजाय उसे हर साल दूसरी जगह ले जाने से उसके विकास में तेजगति होगी साथ ही वैज्ञानिक चिंतन। उसे जिला, राज्य बदलते रहने से अन्य लोगों के साथ वह चलना सीखता है। उसकी मूढ़ता ध्वस्त होती है। हमारे चिंतक, वैज्ञानिक, व विद्वज्जनों की जीवनी से यही पता चलता है कि विशाल विचार एवं दृष्टि के लिए हमारी परिधि विस्तृत होना आवश्यक है। जिस तरह के वातावरण में बच्चा रहता है उसी के अनुरूप उसका मन विकसित होता है। इसलिए बच्चे की परिधि में विशाल जगह का होना जरूरी है। समता, भाईचारा इसी से संभव बनाया जा सकता है। जाति, धर्म, प्रांत, भाषा आदि से ऊपर उठना है तो उसे अन्य जाति, धर्म , प्रांत , भाषा के वातावरण के साथ अनुभवजन्य ज्ञान दिलाना होगा। विशाल मानव जग के साथ चलने के लिए उसे अवसर देना हमारी सबसे बड़ी देन है।