हमारे सांस्कृतिक जीवन मूल्यों में है पर्यावरण
पर्यावरण दिवस- 5 जून
मुझे याद है। बचपन में पिताजी ने सिखाया था. सबेरे सोकर उठो तो सीधे पृथ्वी पर पैर मत रख दो। पहले धरती को प्रणाम करो। क्योंकि ये हमारी मां है। फिर संघ में गाए जाने वाले प्रातरू स्मरण में सीखा.
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम् पादस्पर्शं क्षमस्व मे
हे विष्णु की पत्नी पृथ्वी मां मैं तुम्हें पैर से स्पर्श कर रहा हूं। क्षमा करना।
ये हैं पर्यावरण के संस्कार जो किन्हीं नियम कानून संविधान से नहीं अपितु हमारी संस्कृति में जीवन मूल्यों से जोड़ कर बचपन से दिए जाते हैं। दादी-नानी पीढ़ियों से बच्चों को सिखाती आ रही हैं। रात में पत्ते नहीं तोड़ो, पेड़ रात में सोते हैं। चन्दा मामा है। नदी मां है।
गंगा सरस्वती सिंधुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी
कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी
ये सब पवित्र नदियां हैं। कोई अपनी मां को कैसे गंदा कर सकता है। इसी तरह पर्वतों को पवित्र बता उनकी पूजा की गई है.
महेंद्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालय
ध्येयो रैवतको विंध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा
बड़े बुजुर्गाे को खाने की थाली के चारों ओर जल से आचमन कर पहले एक टुकड़ा गाय के लिए निकालते भी हमने देखा है। पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि, जल ये सब मेरा दिन मंगलमय करें. इस प्रकार की सभी प्राकृतिक तत्वों की न केवल रक्षा अपितु उनकी पूजा के संस्कार हिन्दू धर्म में ही मिलेंगे.
पृथ्वी सगंधा सरसास्तथाप स्पर्शी च वायुर्ज्वलन च तेजः
नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्
काफी दिन पहले प्रभु जी (श्री प्रभु नारायण श्रीवास्तव) की लिखी गीता प्रवाह पढ़ी थी। पर्यावरण के मार्गदर्शक सिद्धांत समझना है तो हमें भगवदगीता को पढ़ना होगा। अन्नादभवंति भूतानि.. अध्याय तीन में सृष्टि चक्र समझाया गया है। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से, अन्न वृष्टि से, वृष्टि यज्ञ से और यज्ञ विहित कर्माे से उत्पन्न होते हैं। जो भी इस सृष्टि क्रम के अनुसार नहीं चलता वह पापायु व्यर्थ जीता है। इसलिए गीता प्रवाह में व्याख्या करते हुए आगे प्रकृति निर्मित यानी जमीन, जल, जंगल, जन और मनुष्य निर्मित इंफ्रास्ट्रक्चर बिजली, मकान, सड़क, उद्योग आदि में संतुलन की बात कही गई है। असंतुलित प्राकृतिक दोहन होगा तो फिर प्रकृति भी अपना रौद्र रूप दिखाएगी ही।
कुल मिलाकर हमें अपने जीवन मूल्यों को पकड़कर रखना होगा। नियम कानून बनाकर कुछ पेबंद का काम तो हो सकता है लेकिन दोहन पर वास्तविक नियंत्रण नहीं। इसीलिए उपनिषद् का ये मूल सन्देश हमें फिर से समझना होगा और दुनिया को भी बताना होगा कि.
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंचित् जगत्याम जगत
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विधनम्
अर्थात ये सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। ये सब मेरा नहीं अपितु ईश्वर का है। यह समझ कर आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें।
आइए हम अपनी जड़ों की ओर लौट चलें। इसी में मानवता का कल्याण है।
–.गोविन्द राम अग्रवाल