गुरूद्वारा घल्लुघारा साहिब, जहां ख़ालसा ने विजय प्राप्त की थी
गुरदासपुर से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है यह प्रसि( ऐतिहासिक गुरूद्वारा घल्लुघारा साहिब। इस गुरूद्वारे को जाने के लिए कई रास्ते सम्पर्क बनाते हैं। गुरदासपुर से सिध्वां, मान चोपड़े से गांव कोटली सैनियां होते हुए सीध घल्लुघारा गुरूद्वारे को रास्ता पहुंचता है, जो लगभग आठ किलोमीटर पड़ता है। तिबड़ी कैंट से पुराना शाला तथा गुन्नोपुर तक बस पर, आगे साढे तीन किलोमीटर पर है यह गुरूद्वारा। यह सड़क पक्की है। प्रत्येक किस्म का छोटा-बड़ा वाहन आसानी से यहां तक पहुंच सकता है। इस रास्ते की दूरी लगभग 14 किलोमीटर पड़ जाती है। सबसे निकटवर्ती रास्ता है गांव चावा से गुरूद्वारा घल्लुघारा साहिब, कोई तीन किलोमीटर पक्की सड़क।
इस गुरूद्वारे के साथ सिंहों ;ख़ालसेद्ध की शहीदियों के जुड़ने का प्रसंग है। अगष्य सिंह इस छम्भ के क्षेत्रा में शहीद हुए और मुगलों के दांत खट्टे किए। ज़ुल्म, अत्याचार के खि़लाफ सिंहों ने डट कर मुकाबले किए और फतेह ही फतेह ;विजयद्ध हासिल करते चले गए। बताया जाता है कि छम्भ गांव बरड़ा ;काहनूवान छम्भद्ध ऐतिहासिक स्थान पर मीलों तक घना अरण्य होता था। जब लाहौर के सूबेदार लखपत राय ने 1746 ई. में ख़ालसे का अगण्य कत्लेआम शुरू किया तो लगभग 22 हजार ख़ालसे ने इस स्थान पर शरण ली। लखपत राय ने लाखों की संख्या में फौज लेकर ख़ालसे पर आक्रमण कर दिया। तीन महीनों तक यु( चलता रहा। जब उसका वश न चला तो 10 जून को उसने जंगल को आग लगवा दी। हाथ-हाथ की लड़ाई हुई। जंगल की आग ब्यास दरिया पार करते ग्यारह हजार ख़ालसों ने शहीदियां प्राप्त कीं। इतिहास में यह घोर यु( छोटे घल्लुघारे के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस क्षेत्रा की कुछ बुज़ुर्ग शख्सियतों ने घल्लुघारे के बारे में बताया कि एमनाबाद में सिंहों-ख़ालसे ने बैसाखी मनाने की कोशिश की। वहां का सूबेदार जसपत था। उसका बड़ा भाई लखपत लाहौर के सूबे का दीवान था। वह ख़ालसे को बैसाखी नहीं मनाने देना चाहता था। ख़ालसे ने तम्बू लगाए हुए थे। बैसाखी मनाने के लिए समस्त प्रबंध् हो चुके थे। ख़ालसे के साथ जसपत तथा उसकी फौज का यु( हुआ। इस यु( में जसपत मारा गया। उसकी पत्नी अपने जेठ के पास लाहौर जाकर रोई तथा क्रोध् में आकर लखपत दीर्घ फौज लेकर ;लगभग पचास-साठ हजार के करीबद्ध ख़ालसे का नामो-निशान मिटाने के लिए निकल पड़ा और आखि़र जहां तक काहनूवान का ध्म्भ और पण्डोरी तक जंगल ही जंगल होता था, वहां पहुंचा।
लखपत ने एक तरफ खूंखार कुत्ते, दूसरी ओर फौज तथा तीसरी तरफ स्वयं घेरा डालकर, चतुर्थ तरफ छम्भ-जंगल को आग लगा दी। वाहेगुरू आप सहाई हुआ। ख़ालसे के आत्मविश्वास, आत्म-बल, संयुक्त बल को कई आलौकिक ;दिव्यद्ध शक्तियां मिलीं। तेज़ आंध्ी और अंधधुंध बारिश शुरू हो गई। सांप-सपोलिए, ख़तरनाक जानवर बाहर निकलने लगे। आग में जलने लगे। ख़ालसे ने आग में जलने-मरने से लड़ कर मरना, शहीदी पाना बेहतर समझा। इस यु( में लगभग ग्यारह हजार सिंह शहीद हुए। कुछ आग के घेरे से बाहर निकल गए। आखि़र एक भी ख़ालसा लखपत के हाथ न लगा तो वह नमोशी के साथ वापस चला गया।
इस यु( वाले स्थान पर कुछ समय के पश्चात कुछ कमरे बनवाए गए थे। हालात अपने हाथों में नज़र आए तो ख़ालसे ने इस जगह पर इन कमरों में श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश किया। यह मुस्लमानों का गांव था। यहां एक मसीत थी जो उस समय में ही जीर्ण-शीर्ण ढह हो गई थी। उस समय की एक बेरी अब भी मौजूद है, जिसको बेरी साहिब कहते हैं। बताया जाता है कि यहां एक तालाब भी मौजूद था, जो आजकल नज़र नहीं आता।
आजकल इस गुरूद्वारे की इमारतें साज-सज्जा के लिए तैयार हो रही हैं। बड़ा दीवान हाल बन रहा है। इस गुरूद्वारे को श्री अवतार सिंह शाह ;गांव गुन्नोपुरद्ध ने ग्यारह कनाल ज़मीन दी। श्री स्वर्ण सिंह पटवारी ने दो कनाल ज़मीन दी। शिरोमणि कमेटी ने इस गुरूद्वारे के लिए एक लाख ईंट दी। इस क्षेत्रा की संगत का बहुत सहयोग है। गुरूघर के साथ प्रेम-सत्त्कार और श्र(ा रखते हुए तन-मन-ध्न से सेवाएं समर्पित करते हैं। शहीद ख़ालसे की याद-स्मृति को समर्पित इस गुरूद्वारे में बैसाखी का मेला ध्ूमधम से मनाया जाता है। आठ तथा नौ दिसम्बर को वार्षिक जोड़ मेला लगता है। हजारों-लाखों की संख्या में प्रत्येक वर्ष अगण्य संगत आती है। दस जून, 1746 के शहीद ख़ालसे की स्मृति में भारी कीर्तन-दरबार होता है और संगत ;श्र(ालुयोंद्ध को लंगर छकाया जाता है। प्रत्येक अमावस पर हजारों श्र(ालु आते हैं। वर्ष में दो बार मई के महीने ‘रैन सवाई’ कीर्तन का भव्य आयोजन किया जाता है। यहां चौबीस घण्टे लंगर चलता रहता है।
इस गुरूद्वारे की प्रबंध्क कमेटी के अध्यक्ष हैं पूर्व विधायक मास्टर जौहर सिंह। प्रबंध्क कमेटी में इस क्षेत्रा के गांवों के 17 सदस्य भी शामिल हैं।
— बलविन्दर ‘बालम’