नवीन शोधों के साथ परम्परा का पथ अपनाने का समय
भारत में ज्ञान संस्कृति की सम्पदा श्रुत परम्परा में सुरक्षित, संरक्षित एवं जीवित रही है। इसीलिए वेदों एवं अन्य आर्ष ग्रन्थों को श्रुति संज्ञा से अभिहित किया गया। पीढ़ी दर पीढ़ी यह ज्ञान कोश न केवल सुन-सुनाकर हस्तान्तरित होता रहा है बल्कि कहीं अधिक समृद्ध भी होता रहा है। किसी समाज की चिरन्तरता एवं वैचारिक पृष्ठभूमि का सुदृढ आधार इस बात पर निर्भर होता है कि उसकी ऊर्जा का अधिष्ठान केन्द्र कितना प्राचीन है, उसका मूल उद्गम कहां हैं, उसके प्रवाह में समाज को दिशा प्रदान करने वाले प्रेरक तत्व किस रूप में विद्यमान हैं। ज्ञान संवहन की यह रचनात्मक धारा लोक जीवन में सदा-सर्वदा प्रवाहित रही है। इस जीवन धारा में अवगाहन कर परिवारों ने अपनी हर पीढ़ी को पोषित पल्लवित किया है, एक जीवन दृष्टि दी है और जीने का सलीका भी। समाज जीवन में बहुधा एक उक्ति कही जाती है कि महाजनों येन गता सः पंथः अर्थात् जिस रास्ते पर समाज एवं परिवार के बड़े-बुजुर्ग चलें, अन्य को भी उसी पथ का अनुसरण करना हितकारक है, वही उचित मार्ग है। हमारे लोक जीवन के उस मार्ग पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पशुपालन, वित्त, कृषि, कुटीर उद्योग, वैद्यकी, हस्तकला, उद्यानिकी, अभियांत्रिकी आदि के मनोरम दृश्य विद्यमान थे जिसमें विविध रंग पूर्णता एवं भव्यता के साथ बिखरे हुए थे। साथ ही समता, समरसता, सहकार, न्याय, विश्वास, करुणा एवं स्नेह के उदात्त भावों से सुसज्जित इंद्रधनुष मानव मन में साकार था। लोक जीवन प्रकृति के साथ तादात्मय, धरती एवं जल के प्रति मां की भावना, वनस्पतियों में जीवन, गिरि-कानन के प्रति भक्ति भाव और सम्पूर्ण जड़-चेतन की वसुधा पर एक सार्थक भूमिका की पहचान के साथ निर्भय, निस्वार्थ, निरभिमान हो आनन्दपूर्वक जीवन बसर कर रहा था। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण गांव अपना विशाल परिवार है, इस नाते सभी के सुख-दुख साझे थे। समाज-जन बंधु-भगिनी भाव से जुड़कर परस्पर नेह-उल्लास लुटाते, उत्साह जगाते सुखपूर्वक जीवन जीने का अभ्यस्त था। वहां बाजार-व्यापार न था, मोल-भाव, क्रय-विक्रय न था। परस्पर वस्तुओं का आदान-प्रदान था और विचार विनिमय भी। प्रेम पगा संवाद था और संवाद से निकलते थे आनन्दमय जीवन के सुरभित सहकारी पथ।
संयुक्त परिवार, समाज एवं लोक जीवन में रचे बसे उस सीख-समझ को आधुनिकता के मोहपाश में बंध हम त्याग कर बैठे। पुरखों के बताये रास्तों को पिछड़ेपन की निशानी समझ पश्चिम की चादर ओढ़ सो गये। सुख-सुविधा के तमाम संसाधन जुटाये, नये रास्ते तलाशे पर इन रास्तों पर अपनेपन की न ही छांव मिली और न ही मन को शांति के दो पल दे सकने का ढांव ही। यहां केवल चमक-दमक का आकर्षण था जो अर्थ पर टिका था। यहां मानवीय संवेदना, करुणा और भाईचारे की कोई जगह न थी। हमारे पैरों के नीचे न अपनी जमीन थी और न ही सिर पर नीला विस्तीर्ण आसमान। फिर भी हम खुश होने का भ्रम पाले रहे। अपने रूठते-टूटते गये पर हम मना न सके। बनावटी मुस्कान ओढ़ी पर जीना भूल गये। आत्मीय सांसों का स्नेहिल स्वर-नाद गुम हुआ और संगीत का रस एवं सौन्दर्य भी। स्मरणीय है, बड़े-बुजुर्गों द्वारा उनके अनुभव से बताये-बनाये रास्तों पर चलकर जीवन सदा सुवासित एवं ऊर्जा भरा रहा है जहां प्रेम, आत्मीयता की सघन सुरक्षा छांव थी और रिश्तों की गरमाहट एवं मिठास थी और परस्पर सहयोग समन्वय का सम्बल भी। अभी भी समय है कि हम पुरखों के बताये रास्तों पर चलकर जीवन को संवार लें, कल कहीं देर न हो जाये।
गांवों में जीवन प्रकृति के साथ इस तरह गुंथा हुआ था कि उसे अलग करके देखना सम्भव न था। खेती-किसानी वर्षा आधारित थी पर उपज भरपूर थी। रासायनिक उर्वरक की आमद खेतों तक न हुई थी मुहल्ले के घूरे की जैविक खाद पाकर खेत पुष्ट होते और मृदा उपजाऊ। धान की फसल पकने को होती तो खेत-खलिहान महकने लगते। गौरैया, मैना, तोता, चील, बाज, गिलहरी, चूहा, सांप, सियार, लोमड़ी, खरहा सभी का निर्वाह खेतों से हो जाता। खेत पानीदार थे और गांव भी। भूजल का स्तर दस हाथ पर होता। पर फिर रासायनिक उर्वरक गांव पहुंचा तो फसलों को अधिक पानी की दरकार हुई। मिट्टी जहरीली हुई और अनाज भी। फलतः केचुवा समाधि में चला गया और पक्षियों ने नेह-नाता तोड़ लिया। तालाबों से नीर गायब हुआ और आंखों से भी। घर-घर नल लगे तो गांव के कुएं वीरान हुए और पनघट की हंसी-ठिठोली और मस्ती भी। घरों में तब माचिस न थी। होली की आग साल भर बरती जाती। गोरसी की राख में दबी कंडे की आग से ही चूल्हा-कौड़ा अगियाया जाता। आग का बुझकर खत्म हो जाना घरैतिन की लापरवाही का परिचायक होता। तब पड़ोस से आग मांगी जाती। यह आग का देना-मांगना दरअसल सामाजिक समरसता का प्रतीक था। घर-घर गायें थीं और कन्हैया को दूध-दही का भोग भी। दूध बेंचा न जाता। चाय कोई जानता न था। पाहुन साझे एवं भगवान का रूप थे और स्वागत वंदन में दही-गुड़ और खोवा से आवभगत होती। भरपूर परिश्रम से उपजी सुख की नींद थी। अपवाद को छोड़ कोई बीमारी न थी। वैद्य थे जिन्हें हर व्यक्ति की नब्ज मालूम थी और दैहिक प्रकृति भी। पंचांग जड़, छाल, पत्ती, पुष्प और फल ग्रहण करने हेतु वनस्पतियों को एक दिन पूर्व में ही न्योतना होता। इतवार-बुधवार ही दवा की जाती ताकि वनस्पति का विस्तार हा सके, विनाश नहीं। संग्रह वर्जित था, आवश्यकता भर पर्याप्त था। सरिताएं सदानीरा थी। कोई वृक्षारोपण अभियान न था पर हर वर्ष आम, अमरूद, पीपल, बरगद, नीम, जामुन, महुआ, कैथा के पौधे रोपे जाते। बेर, इमली, कीकर, बबूल अपने आप उगते-बढ़ते। धरती में इतनी तपन न थी और न ही शीत-कुहासे का गहरापन।
आज जब हम वैज्ञानिक अनुसंधान के बल पर चांद पर पहुंच गये हैं, मंगल पर यान उतर चुके। तमाम उपग्रह दिन-रात पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। मापक यंत्रों के बल पर प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान करने में समर्थ हैं। सुख-सुविधा के तमाम संसाधनों का अंबार लगा है। तब एक सवाल उभरता है कि फिर हम क्यों इतने खोखले, अशान्त, क्रद्ध एवं चिड़चिड़े हो गये। क्यों हमारा दैनंदिन व्यवहार असंवेदनशील एवं अमानुषिक है। हम बेहतर इंसान बनने की बजाय क्यों गिद्धों के रूप में तब्दील होते जा रहे हैं। क्यों हमें आपदा में निहित स्वार्थ, लालच एवं अवसर दिखाई देता है। कारण एक ही है कि हमने पुरखों के बताये रास्तों को तिलांजलि दे दी है। जरूरत है नवीन एवं प्राचीन परम्परा एवं अन्वेषण के समन्वित पथ पर कदम धर सुख-शान्तिमय विश्व की सर्जना करें। समय है विचार करने का। आधुनिक विज्ञान का सत्व ग्रहण करें पर परम्परा से मुंह न मोड़ें। पुरखों के रास्ते अभी भी खुले हुए है। आओं लौट चलें ताकि हम बच सकें एवं हमारी आगामी पीढ़ी भी और यह धरती भी।
— प्रमोद दीक्षित मलय