मन की चाह
मन में चाह उठा करती है ,कुछ नूतन निर्माण करूँ |
करूँ स्रजन कुछ बड़ा अनोखा,जग का पुनरुद्धार करूँ |
नील गगन में जितने तारे , धरती पर उतार लाऊँ –
जिस घर में हो अँधियारा ,उस घर में एक लगा आऊँ |
अंधकार मिट जाये सारा , हर आँगन हो उजियारा |
मन में चाह उठा करती है , खुशियों का हो चौबारा |
रहे न भूँखा नंगा कोई ,दुख की छाया नहीं घिरे-
मिट जायें विकार जग के सब,कल्मश केघन नहीं घिरें |
जगती सोती आँखो में बस, तिरते स्वप्न यही रहते |
बारूदों का ढेर न होता , प्रेम पूर्वक सब रहते |
स्वप्न पूर्ण कर दो जगदीश्वर, जग को कुछ दे पाऊँ मैं –
मर कर भी न मरूँ कभी मैं ,ऐसा कुछ कर पाऊँ मैं |
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’