/ सबसे पहले तुम अपने आपको समझो… /
धर्म किसी का भी हो, उसका स्थाई रूप नहीं होता है। परिवर्तनशील जगत के साथ उसका परिवर्तन जरूर होता है। आज की दुनिया में धार्मिक आवरण स्वेच्छायुत नहीं है। व्यक्ति को साधना संपन्न, सहनशील, सुख – शांति का जीवन रहस्य खोलने की दिशा में ले जाने के बजाय भगदड़ मचा दिया है। हर जगह एक दौड़ है। एक झूठ है। बाहर की दुनिया में वह भटकने लगा है। जिसको वह पाना चाहता है वह उसके अंदर ही है। विचारणीय मुद्दा यह है कि एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायी को अधम एवं अपने धर्म का विरोधी मानकर मानव समाज में संघर्ष का वातावरण फैलाने लगे हैं। जिस धर्म को वह मानता है, उसको दूसरों पर थोपने का प्रयास कर रहा है। उस धर्म की रक्षा अपना कर्तव्य समझकर वह अपनी असलियत को खो बैठा है। जिसको उसने पाना चाहा, अब उसकी सुध भी नहीं है। धर्म के लिए वह हिंसक बन गया है। वह स्वयं संघर्ष में कूदकर समाज को भी संघर्षमय बना दिया है। समाज में सुख – शांति लाने की बात गायब हुई है। धार्मिक अंधानुकरण बहुत बड़ा खतरा है। आज यही हम देख रहे हैं। इस धरती पर मनुष्य का समानाधिकार है। उसकी स्वतंत्रता हनन करना अमानुषिक है। वह किसी भी धर्म को मान सकता है। उस पर जबर्दस्ती का अधिकार किसी को नहीं है। जिस पेड़ की छाया में सुख – शांति मिलती है, उसी पेड़ के नीचे बैठने दो। उसके फल खाने दो। खट्टा – मीठा का स्वाद उसे तय करने दो। सबसे पहले जिस धर्म को मानता है, स्वीकार करता है उस धर्म के नियम का अनुसरण एवं साधना के अभ्यासी बनने दो। यह जगद्विदित सत्य है कि हथियार से, युद्धों से धर्म व शांति की स्थापना कभी नहीं हो सकती। धर्म एक समझौता का कार्य है। व्यक्ति सबसे पहले अपने को समझना है। दूसरों के दुःख, दर्द एवं पीड़ा को समझना है। वास्तव में दूसरे के दुःख, दर्द एवं पीड़ा का कारण स्वार्थी की अंध श्रद्धा, अधिकार की लालसा है। धर्म व्यक्ति को स्वार्थ चिंतन से मुक्ति दिलाना, यथा स्थिति को स्वीकार करना, हर जीव में वास करने की योग्यता प्राप्त कराना है।