ममता का अधिकार
नजर जब पड़ती है मेरी
प्लास्टिक बीनते बच्चे पर
दिल में एक टीस चुभती है
उपर वाले के गलत फैसले पर
जिस हाथों में होना था कॉपी
और निगाहें किताब के पन्ने पर
उस मासुम को थमा दी बोरा
कचरा पे बीनने गन्दे मैलों पर
जिसका था अधिकार ममता पर
जिनकी जरूरत थी मॉ की करूणा
समाज में पल रही कुव्यवस्था ने
चूर कर दी उनकी सपन सलौना
रूठ गया लड़कपन इनका
छुट गई दोस्तों का संग खेलना
रोटी की जुगाड़ में हाथ गन्दा कर
क्षुधा तृप्ति में होता है रोज पसीना
टुट गया सब ख्वाब बचपन का
ज़ब मासुम बैठ कभी सोंचता है
खेल रहे हमउम्र को देख कर
इनका भी बचपन रोज रोता है
काश ! मैं भी पैदा लिया होता
अमीरजादा के घर आँगन में
कभी ये दिन देखना ना पड़ता
इस पावन सा सावन। में
— उदय किशोर साह