व्यंग्य – बड़ी रसीली, छैल- छबीली
आज भला मुझे कौन नहीं जानता ,पहचानता।जो जानता वह तो मानता ही मानता और जो नहीं जानता वह तो और भी अधिक मानता। मैं हूँ ही ऐसी गूढ़ पहेली , अपने चहेतों की अंतरंग सहेली।चाहते हुए भी मैं रह नहीं पाती अकेली। मैं तो बड़ी ही रसीली हूँ,छैल – छबीली हूँ।रंग-रँगीली हूँ।एक क्षण के लिए भी नहीं मैं ढीली हूँ।सदा हरी हूँ ,लाल हूँ। बेमिसाल हूँ।मेरे चहेतों के लिए टकसाल हूँ।वे मुझसे औऱ मैं उनसे निहाल हूँ।साँचा धारियों के लिए तो बस काल हूँ।
अब तो आप मुझे पहचान गए होंगे।मैं व्यापक सर्वत्र समाना ।मेरे ठौर – ठिकाने नाना।अब तक भी जो मुझे न जाना।मारूँगी उसको मैं ताना।मैं वहाँ भी हूँ, जहाँ दिखलाई भी नहीं देती।कहीं साकार हूँ तो कहीं निराकार भी हूँ।देश,समाज,धर्म, कर्म, शासन, प्रशासन,संस्थाएं, शिक्षालय, कार्यालय, कोर्ट ,कचहरी, ( जहाँ कच का हरण किया जाए) दीवानी, चौक ,चौकी ,चौका: सभी जगह मेरा सम्मानपूर्ण स्थान है।कुछ मनुष्यों के तो मुझमें ही प्राण हैं। मेरे बिना अस्तित्व ही क्या है उनका। मैं वह शक्ति हूँ, ऊर्जा हूँ कि मेरे सहारे के बिना वे उठा भी नहीं सकते तिनका।मैं उनकी सशक्त लाठी हूँ।किसी- किसी के लिए वंश परंपरागत परिपाटी हूँ। एक ऐसी अफ़ीम हूँ उनके लिए , जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं। मैं नहीं ,तो वे भी नहीं। कहीं के भी नहीं।
अनेक रूप हैं मेरे।बोतलों में भरी मदिरा की तरह सब का मूल तत्त्व एक ही है।बस अंतर तो मात्र इतना कि उनके लेबिल अलग – अलग हैं। लेबिल बदलते रहते हैं। मैं वही की वही रहती हूँ । चूहे खतरा भाँप कर बिल बदल लेते हैं। इसी में उनकी समझदारी है। मैं सबकी शिक्षक हूँ। यदि मैं भी जड़वादी सिद्धांत से एक ही स्थान पर अपनी जड़ें जमा बैठी तो किसी दिन भूचाल आने पर अस्तित्व पर खतरा हो सकता है।इसलिए मैं सदा सचल हूँ।मेरी सचलता ही मेरे अस्तित्व की संजीवनी है।’जैसी बहे बयार तबहिं तैसौ रुख कीजै’ के सिद्धांत पर चलने के कारण सारा संसार मुझे सिर पर उठाए फिरता है।
सबको सब कुछ तो मिलता नहीं।मेरे साथ रहने वाले में यदि आप चरित्र की सफ़ेदी ढूँढना चाहें ,तो यह मेरे साथ नाइंसाफी ही होगी।मैं किसी दूध धुले इंसाफ़ की कायल नहीं हूँ ‘येन केन प्रकारेण’ अपना उल्लू सीधा करना ही मेरा लक्ष्य है।मनमोहनी नारी की तरह ही मेरा हर रूप भी लुभावना,सुहावना,दिखावना, रिझावना और अपने साँचे में ढालना है। जिनके लिए मैं खट्टे अंगूर हूँ , मेरे बाहुपाश से वे भी नहीं बच पाते।इसलिए प्रकारांतर से ही सही ,मेरा लोहा मानने के लिए वे भी बाध्य हैं। आप कह सकते हैं कि शर्म -ओ-हया तो मुझे कहीं छू भी नहीं गई है।बिना पूछे ,बिना बुलाए ,बिना ज़रूरत मैं चौकी से सीधे तुम्हारे चौके तक धावा बोलती हूँ ।’आ बैल मुझे मार ‘ की नीति मेरे लिए कोई नई नहीं है। सही अर्थ में देखा जाए तो मेरी अपनी कोई नीति ही नहीं है।फिर भी मुझे सम्मान से मंच पर आसीन किया जाता है।
छः ऋतुओं की तरह मेरी भी ऋतुएँ आती – जाती है। इस समय मेरा वसंत पूर्व पतझड़ चल रहा है। पीले पड़े हुए पत्ते अपना स्थान छोड़ रहे हैं और अपना नया आशियाँ तलाश रहे हैं।कुछ भूमिसात हो रहे हैं,तो कुछ किसी औऱ की गोदी में दूध ढूँढ़ रहे हैं। मेरे यहाँ पाँच साल में बालक जवान हो जाता है। इसके बाद भी प्रौढ़ता में नए – नए रस – रंग के बिछौने बिछाता है।पतझड़ के बाद वसंत आने को है।रसलोभी भँवरे नए रस की खोज में झूम रहे हैं।कलियों के मुख चूम रहे हैं। फूल अभी खिले ही कहाँ हैं? इसलिए कलियों से ही मन लगाने में जुटे हैं। कुछ तो बेचारे वैसे ही लुटे-पिटे हैं। पाँच साल बाद मुखौटे लगाकर आने के कारण उनकी बोलती जो बंद है! यह दोष उनका है , तो झेलें।इमली के पत्ते पर बैठकर दंड पेलें। अपन तो रोज छैल -छबीली है ,रंग -रँगीली है।
मेरे यहाँ होली की बारहमासी योजना चलती है।जहाँ अपने – अपने चरित्र के अनुसार अहर्निश होली खेली जाती रहती है।सबकी पिचकारियों में रंग -बिरंगी कीचड़ भरी रहती है ,जिसके छींटे वे समय – समय पर छिटकते रहते हैं।सबसे अच्छी बात ये है कि इसका बुरा कोई भी नहीं मानता। बल्कि भारत पाकिस्तान की तरह और तेज मिसाइल -पिचकारी से अपनी धार को दुधारा बनाने का प्रयास करता है। कोई किसी से कम नहीं है। ये तो हुई होली की बात। किंतु यहाँ बड़ी दीवाली पाँच वर्ष में मात्र एक ही बार आती है। छोटी दिवालियां तो कई – कई बार आतिशबाजियाँ कर जाती हैं। ऐसी ही एक दीवाली की तैयारी में सारा देश लगा हुआ है। यही तो मेरा यौवन काल है, वसंत है।मधुमास है।गधे घोड़े सबके लिए च्यवनप्राश है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’