जिंदगी के रंग (कहानी)
मैं मेरी किशोरावस्था से एक विशेष नाम का जिक्र सुनता रहा । वो नाम हमारे क्षेत्र का जाना-पहचाना नाम था । जब भी साहित्य पर चर्चा होती तो उनकी रचनाएँ अवश्य चर्चा में आती । उन्हें साहित्य के कई बड़े-बड़े सम्मान भी मिल चुके थे । मैं बड़ों की बातों को सुन-सुनकर उस नाम का कायल हो चुका था । आप सब सोच रहे होंगे कि आखिर वह नाम क्या है? तो जानिए- वो नाम हमारे क्षेत्र के रचनाकार व कवि ‘स्नेही’ जी का था ।
मैं उन्हें अखबारों में, मैग्जिनों में पढ़ता-पढ़ता ना जाने कब जवान हो गया । आश्चर्य का ठिकाना तो तब नहीं रहा जब उस सत्र में जब में पढ़ रहा था काॅलेज की (द्वितीय वर्ष) की हिन्दी साहित्य की पुस्तक में स्नेही जी की कहानी को स्थान दिया गया था । अब तो उनसे मिलने की उत्कंठा और भी बढ़ने लगी थी । यद्यपि स्नेही जी के कस्बे और हमारे शहर के बीच की दूरी लगभग तीस किलोमीटर ही थी पर मैं चाहते हुए भी उनसे मिल ना सका ।
उन दिनों अचानक एक दिन बाजार से लौटते समय एक बड़े विज्ञापन पर मेरी नजर पड़ी तो मैं उस विज्ञापन को देखता ही रह गया । विज्ञापन एक साहित्यिक कार्यक्रम का था, जिसमें मुख्य वक्ता स्नेही जी रहने वाले थे । मुझे लगा कि अब मेरी वर्षों की साध पूरी होने वाली है । इन दिनों दुबे-छुपे मैं भी लिखने लगा था पर शहर में किसी को भी इसका पता नहीं था ।
खैर , जैसे तैसे जुगाड़ लगा कर, मैं उस कार्यक्रम से जुड़ गया । तैयारी बैठकों में अन्य व्यवस्थाओं के अलावा मुख्य चर्चा, आदरणीय स्नेही जी को कहाँ ठहराना, अल्पाहार में उन्हें क्या देना के अलावा स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए कौन कौन कार्यकर्ता जायेंगे ये भी नियत किया गया । स्नेही जी से संबंधित गतिविधियों में मैं बढ़-चँढ़कर हिस्सा ले रहा था । सभी वरिष्ठ मुझसे खुश थे ।
कार्यक्रम के बाद स्नेही जी के उद्बोधन की सबने भूरि भूरि प्रशंसा की । मुझे भी कार्यक्रम में उन्हें माला पहनाने का अवसर मिला था । उस अद्भुत दृश्य का फोटो मैंने मेरे शयन कक्ष में आज भी लगा हुआ है । अगर कहें तो वो समय स्नेही जी का ही था । क्या सम्मान था उनका उन दिनों, अच्छे अच्छे आर.ए.एस./ आई.इ.एस सभी फीके थे उनके आगे । वो जहाँ भी जाते लोग अपना स्थान छोड़ कर खड़े हो जाया करते थे । अब मैं चालीस वर्ष की उम्र को छू चुका था, मेरी एक छोटी-मोटी सी सरकारी नौकरी भी, मेरे शहर के पास ही लग चुकी थी । जीवन ठीक से चल रहा था ।
आज अचानक मेरे पास के रिश्तेदार के बेटे की बारात स्नेही जी के कस्बे में ही जा रही थी । उस बारात में मुझे भी जाना था । ‘कहीं न कहीं बारात के साथ मेरा मन स्नेही जी से मिलने को भी करने लगा ।’ बारात जैसे ही उस गाँव में पहुँची मेरी इच्छा उनसे मिलने की और भी प्रवल होने लगी पर ये भी अंदेशा लग रहा था कि वो मुझे पहचानेंगे भी या नहीं, अब वो कैसे होंगे आदि आदि मन में ऊहापोह चल रही थी ।
मैंने नाश्ता लेकर एक किशोर वय के बालक से स्नेही जी के बारे में पूछा तो उसने उपेक्षा भाव से मेरे प्रश्न का उत्तर दिया- यहाँ इस नाम का तो कोई व्यक्ति नहीं रहता, ये कह कर वो चला गया । थोड़ी देर बाद फिर एक युवक से पूछा तो वो मुझे देखते हुए मुस्कराया और चला गया । मुझे झुंझलाहट सी आई। बड़े अजीब हैं इस गाँव के बच्चे संतोषप्रद जबाव देना जानते ही नहीं ।
खैर, पर मैं कब पीछे हटने वाला था । अबकी बार मैंने मेरी हमउम्र एक व्यक्ति को पास बुलाया और पूछने लगा कि भाई साहब- आपके इस गाँव में एक स्नेही नाम के कवि हुआ करते थे, क्या वो अब मिल जायेंगे ? मेरी बात सुनकर तो वो महाशय भी एक बार झटका सा खा गये पर तत्काल संभल कर बोले- श्रीमान ! उन्हें इस नाम से यहाँ कोई नहीं जानता । उन्हें हम यहाँ फूल काका या ‘गुरुजी’ नाम से संबोधित करते हैं पर आप क्यों पूछ रहे हो, उनके बारे में, आपका क्या रिश्ता है उनसे ?
नहीं, नहीं वो ना मेरे रिश्तेदार हैं ना वो मेरे पहचान वाले हैं । हाँ, मैं उन्हें उनकी रचनाओं के माध्यम से जानता हूँ । आज मैं उनसे मिलना चाहता हूँ और उनके दर्शन करके धन्य होना चाहता हूँ । मैं बोले जा रहा था और वो व्यक्ति मुझे अजीब अजीब तरह से देखे जा रहा था । मेरे थमने के बाद उसने एक आठ-दस वर्ष के बालक को बुलाकर मुझे उसके साथ जाने को कहा- इन्हें फूल काका के घर पहुंचा दो । मैं उस बालक के पीछे-पीछे चलने लगा ।
वो बालक मुझसे रास्ते में पूछने लगा- आप फूल काका से क्यों मिलना चाहते हैं? वो तो पागल हैं वो अपने घर वालों के साथ साथ गाँव वालों को भी भला बुरा कहते रहते हैं । गाँव के बच्चे उन्हें चिढ़ाते भी हैं । आप संभल कर जाना, मैं तो घर बताकर बापस आ जाऊंगा । बालक की बातें सुनकर मेरा दिल बैठा जा रहा था । अजीब अजीब के विचार आ रहे थे । तब ही घर आ गया, बालक ने संकेत से बताया और चलता बना । मैं गेट खटखटाने लगा । अंदर से आवाज आई- कौन ? मैंने कहा- यहाँ स्नेही जी रहते हैं ना । नहीं, यहाँ कोई स्नेही नहीं रहते हैं । आप गलत आ गये हैं । आवाज कोई महिला की लग रही थी । इस संवाद के बीच मकान के कौने का एक छोटा सा कमरा खुला कमरे से आवाज आई, कौन है भाई, अंदर आ जाओ।
मैं झिझकते हुए आगे बढ़ा, मंद मंद रोशनी में एक वृद्ध सज्जन दिखाई दिए । मैंने उन्हें प्रणाम किया । वो बोले- आपको किनसे मिलना है और कहाँ से आये हो ?
मैंने कहा- मुझे स्नेही जी से मिलना है । मैं आज इस गाँव में बारात में आया हूँ ।
उन्होंने कहा- बेठिए, मैं ही हूँ स्नेही । लड़खड़ाते हुए खड़े होकर, उन्होंने तेज लाइट जलाई ।
मेरी डबडबाई आँखें अस्तव्यस्त कमरे को देखती, कभी स्नेही जी को। मैं कुछ कह नहीं पा रहा था कुछ अंतराल बाद मैंने अपना परिचय दिया और उस कार्यक्रम की याद दिलाई जिसमें वो मुख्य वक्ता के रूप में हमारे शहर जो पधारे थे ।
अब हम दोनों भर्राई हुई आवाज़ में बात कर रहे थे । उन्होंने ने खड़े होकर मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा कि आप खूब उन्नति करें । यहाँ अब सब लोग मुझे पागल कहने लगे हैं पर मैं पागल नहीं हूँ । दुर्भाग्य है कि मुझे मेरे बेटे-बहू ने ही सर्व प्रथम पागल घोषित किया था ।
इस कारण गाँव के लोग भी मुझे अब उस दृष्टि से देखने लगे हैं । मैंने वर्षों पहले ही लिखना छोड़ दिया है । अब इस कमरे में संसार से उपेक्षित सा पड़ा रहता हूँ । आज आप इस गाँव में बाराती बन कर पधारे हैं, आप हमारे मेहमान हैं पर मैं दुर्भाग्यशाली आपको चाय की भी नहीं कह सकता । मुझे सबकुछ समझ में आ रहा था । मैंने स्नेही जी के चरण छुएं और उनसे आज्ञा लेकर में जनमासे की ओर चल दिया ।
— व्यग्र पाण्डे