अपनी रचना ‘घुंघरू’ में स्त्री की दास्तान को पेश करती हुई कवयित्री कितना सुंदर कहती है-“जिंदगी की तस्करी के सारे लम्हें
जब गमों की बारिश में डूबते हैं,
खामोश हो गई उन रातों में
तवायफ के घुंघरू बज उठते हैं।”
नारी को शिक्षा का पूर्ण अधिकार देने पर तो समाज, देश ,दुनिया में चमत्कार से कम नहीं है ।नारी का दूसरा नाम ही निर्माण है। अपनी रचना “शिक्षा का अधिकार’ में कवयित्री कहती है-
“करना है अगर समर्थ समाज का निर्माण
करों नारी को शिक्षित,करो उसका सत्कार
मैं जननी , मैं निर्माणी, मुझ से बने संसार
कर लो तुम पूर्णतः मेरा अस्तित्व स्वीकार।”
नारी के नए आयामों को घढ़ती हुई वह नारी को आत्मविश्वास के साथ मजबूत बनाती हुई कहती है-
“होने ना दूंगी ज़ोहर, ना खेलेगा कोई चौसर
अपनी अस्मिता की खातिर अब खुद ही लड़ना होगा।”
वे कहती है कि नारी अपने वजूद को भूल गई है वह अपनी शक्ति को पहचानेगी तो वह महाशक्ति बन जाएगी। नारी की आजादी के लिए वह लड़ उठती है, चिख उठती है।
“मैं नारी अपने ही दर्पण में
खुद की पहचान भूल गई।”
अब नारी स्वयं के बारे में चिंतन मनन करने लगी है और कई सवाल करने लगी है-
” मैं खुद ही खुद से एक सवाल करती हूं
क्यों है यह जीवन परिधि में बंधा,
क्यों यह समाज सीमाएं निश्चित करता है
.. क्यां पहनूं, क्या खाऊं, कैसे चलो, कैसे हंसो”
आज की नारी अपना पूर्ण रूप से वास्तविक सम्मान चाहती है ना कि औपचारिक सम्मान के दर्प से ढकना-
“नहीं चाहिए देवी, पूज्य वंदनीय का दर्जा
पूर्ण सम्मान मिल जाए, यही है स्वेच्छा”
वास्तविकता में जीना ही जीना है, आपको विश्वास के साथ वह अपनी रचना ‘जमीर’ में कहती है- “मुकम्मल है उल्फत का पैमाना लुटाती हूं खुशियों का खजाना
उठकर चल देती हूं गिरकर दोबारा
लाचारी बैसाखी की कभी भाई नहीं
मुफलिसी में हमें मंजूर है।”
रचना “गुलाम” में कहती है –
“विवशता कुछ ना कह पाने की
दुर्बलता अधीन बने रहने की
उसकी हिम्मत है सब दु:ख सहने की
गुलामी नहीं तो क्या है?”
इस तरह कहीं-कहीं नारी की पीड़ा से कवयित्री
आक्रोशित हो उठती है। यथार्थ और न्याय के तराजू से तोलते हुए सच्चाई को कहने की हिम्मत करती है।
मातृभाषा हिंदी के प्रति विशेष प्रेम को दिखाती हुई कहती है –
“हिंदी मेरी मातृभाषा
प्रजातंत्र की शास्त्र की भाषा।”
कवयित्री सूक्ति बद्ध शैली में कहती है-
‘सच के लिए सदा खड़े रहो
अपने हक के लिए अड़े रहो।”
रचना ‘अखबार’ में आज के हालात को बयां करती हुई कहती है-
“कहां फेंका गया तेजाब
कहां लूटा गया हिसाब
कहां दुल्हन आग में जली
कहां खिलने से पहले मुरझाई कली
कहां नवजात ढेर में मिली
अफसोस में कितनी मोमबत्तियां जली…
निष्पक्ष रह कर लिखा करो सच्चाई
निडर होकर करो, नेताओं की खिंचाई”
रचना धर्मी अपनी साहित्य सेवा से जन का कल्याण करता है। ‘कवि और कविता’ में सुधा गोयल कहती है-
“कर देते जंकृत ह्रदय को
उसके शब्दों के बाण
सोचने पर मजबूर करता
होता जनकल्याण।”
एक साहित्यकार की कलम सदा ईमान से अपनी लेखनी को पथ प्रदर्शक की तरह आगे बढ़ाएं और न रुके न झुके सदा सत्य की राह का निर्माण करें। वही सच्चा कलमकार है। जो समय परिस्थिति के अनुसार सदा खूबसूरत अल्फाज से न्याय की रेखा को खींचे।
कवयित्री के मन में कसक है ,कई पीड़ा है, उलझन है। जो शब्दों में बयान करती हुई अपनी रचना ‘उलझन’ में दिल की अकुलाहट से स्पष्ट तड़प नजर आती है ;कहती है-
“जीने को तो जी लेंगे पर सब कुछ अधूरा लगता है ।
तुझमें ही तो खुद को खोकर मुझ को पुरा लगता है।”
‘दाग’ में वियोग की तड़प एक विरहणी की भांति स्पष्ट नजर आती है-
“कसमसाती रही मिलन की आरजू
यादों में तुम मेरी इतने आबाद थे।”
‘लफ्जों का खेल’ में- वाणी का व्यवहार में ढलना दुनिया का बहुत बड़ा गुण।
“लफ्जों का खेल यह जीवन सारा
लफ्जों के आगे हर कोई हारा।”
रचना “ज़िद” में संघर्षों के प्रतीक सदा अपनी जिद पर डटे रहते हैं उनके संकल्प सदा मजबूत होते हैं इसलिए आशा और विश्वास पर टिके रहते हैं-
“संकल्प लिए खड़ा रहा
अपनी जिद पर अड़ा रहा…
टूटने लगी थी आस थमने लगी थी सांस
लेकिन अवरोधों के आगे
तान सीना खड़ा रहा।”
सकारात्मक सोच के साथ हिम्मत के फूल सदा मंजिल तक जाते हैं । रचना ‘हिम्मत’ में श्रीमती गोयल कहती है –
“अपने हौसलों को आजमाना है
मुश्किलों में भी मुस्कुराना है।…
सुख दुःख तो आना जाना हैं
भरोसा कर लिया जब खुद पर
निरंतर चलते जाना है
नई मंजिलों को पाना हैं।”
कथनी करनी में नेताओं को अक्सर पाते हैं सदा झूठ बोलकर जनता को ललचाते हैं रचना ‘नेता जी’ में-
“भाषण खूब नेताजी ने दिया श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।”
कवयित्री वसुधा मन में उम्मीद लिए अटूट विश्वास, हर्ष ,हंसी-खुशी और एक अद्भुत साहस से नए संकल्प के साथ लक्ष्य को पाने के लिए नववर्ष का अभिनंदन करती हुई कहती है -“नए वर्ष का अर्थ यही है
साहसी जो समर्थ वही है
भूल कर पीर पुरानी अपनी
दिखला दो हम असमर्थ नहीं है।”
वसुधा गोयल जबरदस्त प्रेरित करने वाली उत्तम रचना ‘पसीने की स्याही’ में लिखती है -“पसीने की स्याही से
लिख अपने मुकद्दर को
पार हो जाएंगे कठिन रास्ते
पहचान अपनी असीमित क्षमताओं को।”
प्रेरित करने वाली ‘प्रेरणा’ में सोए हुए को जागृत करती है तो मरे हुए में जान भरती है-
“चाहे कितनी हो बाधाएं
मन में भर ले आशाएं
चाहे कितना अन्याय हो
साथ हमेशा न्याय का हो
मन में अधिक विश्वास लेकर
एक नई इबारत तुम लिख दो
हिम्मत को हथियार बनाकर
इस धरा को उज्ज्वल कर दो।”
आशावादी कवयित्री वसुधा गोयल अपनी आशा रूपी दीप से मन के अंधियारे को मिटाने की बात करती हुई ‘आशा का दीप’ रचना में यही कहती है –
“अंतस में प्रेम की बूंद डालूं
दरिया नेह का बनने लगा है,
गम का तम हटाकर
खुशियों का सागर बहने लगा हैं।
आशा का दीप जला हैं
मन का अंधियारा मिटने चला है।”
विश्व महामारी में संदेश देती हुई अपनी रचना ‘लोकडाउन’ के माध्यम से श्रीमती गोयल कहती है –
“अपनों को ना हो कोरोना
हर वक्त यही दुआ थी
ना पैसा ना कार ना कोठी
रिश्तों की जमापूंजी सबसे बड़ी थी।”
रचना ‘रिक्तता’ में संदेश देती हुई कहती है-
“स्वाभिमान की ज्वाला में स्वार्थ को जलने दो जेहन में रिक्तता मत पनपने दो।”
संवेदनशील कवयित्री ‘बालश्रम’ रचना में श्रीमती गोयल लिखती है कि-
“कानून तो बना दिया ना तो कभी बालश्रम
पेट की आग के आगे सारे नियम केवल भ्रम।”
वसुधा गोयल एक सधी हुई, अनुभवी एवं मानवतावादी कवयित्री है। देश की संस्कृति सभ्यता गीत गाने वाली है।
जज्बा ,जोश और उम्मीद के दीए जलाने वाली कवयित्री में बहुत ही कशिश है। अपनी रचना ‘कशिश’ में कितना सुंदर कहती है-
“नींद नहीं आती मगर आंखों में ख्वाब बहुत हैं दूर बैठा हैं तु मगर तेरी कशिश बहुत है।”
अपनी रचनाओं में उम्मीद के दीए जलाकर एक नवीन संदेश देने की उम्मीद देती कवयित्री श्रीमती वसुधा गोयल का यह काव्य संग्रह “कस्तूरी” जो पाठकों को साहित्य की महफिल में सुगंध फैलाए बिना नहीं रह सकता है। मैं आशा ही नहीं बल्कि उम्मीद और विश्वास करता हूं कि श्रीमती वसुधा गोयल अपने साहित्य सृजन से साहित्य जगत को काव्य सुधा रस का पान कराती रहे। अपनी साहित्य सेवा के माध्यम से साहित्य प्रेमियों में ज्ञान का संचार करती रहे। नई दिशा ,संदेश एवं आशा की किरणों से काव्य जगत को जगमगाती रहे इसी आशा और विश्वास के साथ मैं उन्हें शुभकामनाएं देता हूं। मंगल कामनाएं करता हूं।
— डॉ.कान्ति लाल यादव